पानीपत
पार्थिव कुमार
अबू अली शाह कलंदर के इस फक्कड़ मिजाज शहर ने जिंदगी की भागमभाग में अपने जख्मों को भुला दिया है। लड़ाई दिल्ली के तख्त और ताज की मगर हर बार सीना कुचला गया पानीपत का। तकरीबन 235 साल के दरमियान हुई तीन लड़ाइयों ने इसकी तबाही में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर दफा हजारों लाशों से इसकी धरती पट गई। लहू इतना बहा कि कहते हैं जमीन के साथ ही 11 किलोमीटर दूर जमुना का पानी भी लाल हो गया।
लेकिन अब यह सब इतिहास की किताब का हिस्सा हो चुका है। जो कभी कंटीली झाड़ियों में उलझी बंजर जमीन थी वहां अब केंचुए की तरह रेंगती संकरी गलियों में इंसानी सैलाब बहता है। जहां हिंदुस्तान पहली बार तोपों की गरज से कांप उठा था वहां हथकरघों की ठकठक दरगाह से उठती कव्वाली की लय से संगत करती है। खून की बास की वजह से जिस हवा में सांस लेना मुश्किल था उसमें अब अचार की खुशबू फैली है।
हैंडलूम और अचार पानीपत की नई पहचान हैं। जिधर देखो - काते, धोए, रंगे, सुखाए और बैलगाड़ियों से लेकर ट्रकों तक पर ढोए जाते कपड़े दिखाई देते हैं। सड़कों के किनारे अचार की अनगिनत दुकानें हर आने जाने वाले को दावत देती हैं। मगर इन सब के बीच बीते समय को हमेशा के लिए दफन कर देना इतना आसान नहीं है। अतीत के अब भी जिंदा जो कुछेक टुकड़े इस शहर को पुराने दिनों से जोड़े हुए हैं उनमें बाबरी मस्जिद एक है।
काबुली बाग इलाके में बनी यह खूबसूरत मस्जिद हिंदुस्तान में मुगलों के जमाने की पहली इमारत है। इसे बाबर ने 1529 में उस जगह बनवाया था जहां उसने इब्राहीम लोधी को हराने के बाद शुकराने की नमाज पढ़ी थी। इस अनूठी मस्जिद में नक्काशी का काम बहुत कम और दरवाजे तक ही सिमटा हुआ है।
बाबरी मस्जिद के बीच के हिस्से की छत पर एक बड़ा गुंबद है। इसके दोनों तरफ 18 छोटे गुंबद हुआ करते थे जिनमें से अब नौ ही बचे हैं। मस्जिद का दक्षिण का आधा हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका है। हुमायूं ने शेर शाह सूरी के वंशज इस्लाम शाह पर जीत के बाद इसके सामने एक चबूतरा बनवाया था जिसका अब नामोनिशान तक नहीं है।
इस मस्जिद की दो खासियतें इसे मुगलों के समय की बाकी ज्यादातर इमारतों से अलग करती हैं। एक तो इसे पतली लाखौरी ईंटों से बनाया गया है जबकि दिल्ली की ज्यादातर मुगलकालीन मस्जिदें सैंडस्टोन की हैं। दूसरे, इस पर कोई मीनार नहीं है। आकार में बड़ी और सादगी से भरी यह मस्जिद शुरुआती मुगल स्थापत्य का नायाब नमूना है।
बाबर ने धनदौलत से लबरेज हिंदुस्तान पर राज करने के सपने देखना 1505 से ही शुरू कर दिया था। उसने 1519 और 1520 में इस पर तीन नाकाम हमले किए। इसके तीन साल बाद लाहौर के सूबेदार दौलत खान की इब्राहीम लोधी के साथ गद्दारी ने बाबर का काम आसान बना दिया। फिर भी 1524 में किए अपने चैथे हमले में उसे इस देश को जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी। नवंबर 1525 में तोपखाने से लैस बाबर ने पूरी तैयारी के साथ काबुल से हिंदुस्तान के लिए कूच किया। उसने 15 दिसंबर को सिंधु नदी पार की और फिर झेलम को लांघते हुए लाहौर तक पहुंच गया। जिस दौलत खान ने कभी उसे हिंदुस्तान पर हमला करने का न्यौता दिया था वह अब लाहौर में अपने 40 हजार सिपाहियों के साथ उससे लोहा लेने को तैयार था। मगर बाबर की सेना को सामने देखते ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई और वह भाग खड़ा हुआ। इसके बाद बाबर रोपड़ में सतलुज को पार करते हुए अंबाला पहुंचा और इस दौरान उसकी राह में कोई अड़चन नहीं आई।
एक अप्रैल 1526 को बाबर की सेना पानीपत पहुंच चुकी थी। इब्राहीम लोधी की एक लाख सिपाहियों और 100 हाथियों की फौज के सामने उसके पास कुल जमा 12 हजार सैनिक थे। लेकिन मैदाने जंग में ही पल कर बड़ा हुआ बाबर लड़ाई के पेंचों को बखूबी समझता था और उसने अपनी एक चाल में ही दिल्ली के सुलतान को फांस लिया। उसने नौ अप्रैल को अपने मुट्ठी भर घुड़सवारों को दुश्मन सेना से लड़ने के लिए भेज दिया जो कुछ देर मुकाबला करने के बाद भाग खड़े हुए। इससे इब्राहीम लोधी को लगा कि दुश्मनों को आसानी से हराया जा सकता है और उसने हमला करने का मन बना लिया। अगले 11 दिन दोनों ही खेमे एकदूसरे की ताकत को तोलते रहे और इस दौरान मामूली झड़पें ही हुईं। आखिरकार इब्राहीम लोधी की सेना ने 21 अप्रैल को सूरज उगने के साथ ही धावा बोल दिया। लेकिन बाबर ने उसे तीन तरफ से घेरने का पूरा इंतजाम कर रखा था और सिर्फ कुछेक घंटों में लगभग 30 हजार मौतों के बाद दोपहर तक लड़ाई खत्म भी हो गई। तोपों की दहाड़ से घबराए हाथियों ने इब्राहीम लोधी के सैनिकों को ही अपने पैरों तले कुचल दिया। आसमान तक छाया धूल का गुबार छंटा तो चीखें कराहों में तब्दील हो चुकी थीं और दिल्ली के सुलतान का जिस्म छह हजार लाशों के ढेर में पड़ा था। मंगोल सैनिकों ने उसके सिर को धड़ से अलग कर बाबर के सामने पेश कर दिया।
उस रोज लोधी वंश का सूरज हमेशा के लिए ढल गया। हफ्ता भर बाद दिल्ली में बाबर के नाम का खुतबा पढ़ा गया और हिंदुस्तान के तख्त पर तैमूर और चंगेज खान के खून का कब्जा हुआ जो अगले 331 साल तक कायम रहा। हिन्दुस्तान की तस्वीर और तकदीर बदल देने वाले इन ऐतिहासिक पलों का गवाह रहे पानीपत में इब्राहीम लोधी का मकबरा अब भी उन दहशतनाक दिनों की याद दिलाता है।
एक हारे हुए सुलतान का यह मामूली सा मकबरा पानी की टंकी जैसा दिखाई देता है। संगमरमर के एक टुकड़े पर फारसी में लिखे चंद हर्फ नहीं होते तो भरोसा करना मुश्किल था कि इब्राहीम लोधी इसके नीचे ही दफन है। मकबरा लाखौरी ईंटों के एक चबूतरे पर बना है जहां तक सीढ़ियां जाती हैं। यहां कोई फूल चढ़ाने या अगरबत्ती दिखाने के लिए नहीं आता। सिर पर कोई गुंबद या छत भी नहीं है। जिसके पैरों तले कभी दुनिया हुआ करती थी वह अब खुले आसमान के नीचे सोया है।
इब्राहीम लोधी की मौत के 30 साल बाद पानीपत की धरती पर एक बार फिर जंग की बिसात बिछ गई। इस बार आमने सामने थे बाबर का पोता अकबर और कभी रेवाड़ी में नमक का सौदागर रहा हेमचंद्र कलानी जिसे इतिहास हेमू के नाम से जानता है। उन दिनों समूचे हिंदुस्तान से बेदखल अकबर जालंधर में टिका था। अफगान सुलतान इब्राहीम शाह की मेहरबानी से वजीर और फिर उथलपुथल का फायदा उठा कर सम्राट बने हेमू का मन दिल्ली में विक्रमजीत का खिताब लेने से नहीं भरा और उसने अकबर का पीछा करने की ठान ली।
उस समय अकबर की उम्र सिर्फ 14 साल की थी। चैबीस लड़ाइयां लड़ चुके हेमू को लगा कि दुश्मन अनाड़ी है और 30 हजार राजपूत सैनिकों और अफगान घुड़सवारों और 500 हाथियों की उसकी सेना को देखते ही वह काबुल भाग खड़ा होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों सेनाएं पांच नवंबर 1556 को पानीपत में गुत्थमगुत्था हो गईं।
अकबर की फौज छोटी थी और हेमू जीत हासिल करने के काफी करीब पहुंच गया था। मगर अचानक आंख में तीर लगने से हेमू बेहोश हो गया और लड़ाई की तस्वीर एक पल में बदल गई। उसके सैनिक भाग खड़े हुए और उसे पकड़ कर अकबर के सामने लाया गया। अकबर के खानबाबा बैरम खान ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया और इस तरह दिल्ली पर एक बार फिर मुगलों की बादशाहत कायम हुई।
दूसरी लड़ाई की कोई भी निशानी अब पानीपत में नहीं है। लेकिन 14 जनवरी 1761 को अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई जिस जगह हुई थी वहां एक युद्ध स्मारक बना दिया गया है। यह स्मारक घने पेड़ों और रंगबिरंगे फूलों से सजे एक खूबसूरत बगीचे के अंदर है जहां इस शहर के लोग पिकनिक मनाने जाया करते हैं। कहते हैं कि लड़ाई के दौरान दोनों तरफ से तोपों ने इतना धुआं उगला कि जमीन स्याह हो गई और इसीलिए इस जगह को काली अम्ब के नाम से जाना जाता है। सदाशिव भाउ की अगुवाई में दो सौ तोपों से लैस मराठा सेना में 55 हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सैनिक शामिल थे। सामने खड़ी थी 42 हजार घुड़सवारों, 38 हजार पैदल सिपाहियों और तोपों से लदे दो हजार उंटों की विशाल फौज। पौ फटने के साथ ही शुरू हुआ खूनखराबा दिन भर चलता रहा और तोपों की गरज समूचे माहौल में गूंजती रही।
आखिर में बालाजी राव पेशवा के बेटे विश्वास राव की गोला लगने के बाद घोड़े से गिर कर हुई मौत के साथ ही मराठों का हौसला टूट गया। अपने भतीजे की मौत की खबर पाते ही गुस्से में पागल सदाशिव भाउ विरोधी सेना पर टूट पड़ा मगर अफगान घुड़सवारों ने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। इसके बाद मराठा सेना तितर बितर होने लगी और शाम ढलने के साथ ही लड़ाई भी खत्म हो चुकी थी।
उस रात पानीपत के अंधेरे बियाबान में सर्द हवाएं तूफान की रफ्तार में चल रही थीं। आसमान से लेकर जमीन तक घने कोहरे का परदा था। लाशों के ढेरों के बीच सन्नाटा चहलकदमी कर रहा था। लगता था कि यह स्याही अनंत काल तक पसरी रहेगी। लेकिन ऐसी कितनी ही रातों से गुजर चुके पानीपत को पता था कि हर रात की कोख में सवेरा पलता है। सुबह होते ही दरख्तों के पीछे से सूरज निकलेगा और जिंदगी आंखें मलते हुए फिर से अपनी राह पर चल पड़ेगी।
अबू अली की दरगाह पर सुबह चिड़ियों के जगने से भी पहले होती है। उनका जन्म 1209 में हुआ था और वह 40 साल तक पानीपत में रहे। इसके बाद वह दिल्ली जाकर कुतुब मीनार के पास एक झोंपड़े में रहने लगे जिससे थोड़ी ही दूरी पर उनके पीरोमुर्शिद ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जमातखाना था। उनके मुरीदों में सुलतान गियासुद्दीन बलबन, जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी भी शामिल थे। अबू अली का इंतकाल 1324 में 115 साल की उम्र में करनाल में हुआ जहां से उनकी देह को लाकर पानीपत में दफनाया गया।
दरगाह पर सभी मजहबों के लोगों का आना जाना दिन भर लगा रहता है। मन्नत मांगने वाले मकबरे में बनी एक जगह पर ताला लगा कर जाते हैं जिसे मुराद पूरी होने के बाद आकर खोलना होता है। अबू अली के बारे में मशहूर है कि उनके जमाने में जमुना पानीपत से गुजरती थी। वह उनकी इतनी इज्जत करती थी कि एक बार सात कदम पीछे हटने के लिए कहे जाने पर वह शहर से सात मील दूर चली गई। दरगाह के अहाते में पहुंचने के लिए एक मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। सामने संगमरमर के एक चैकोर चबूतरे पर बनी दरगाह के अंदर अबू अली का मकबरा है। इसके आसपास वजूखाना, आने वालों के ठहरने के लिए कमरे और दफ्तर बने हैं। अहाते में कुछ और कब्रें भी हैं जो शायद उनके मुरीदों और नजदीकी लोगों की होंगी।
हजारों साल पहले पांडवों ने हस्तिनापुर पर राज करने वाले अपने चचेरे भाइयों से पानीपत समेत पांच गांव मांगे थे। इस मांग को मानने से कौरवों के इनकार के बाद ही महाभारत की लड़ाई शुरू हुई थी। कुरुक्षेत्र में सत्रह दिनों तक चले इस घमासान को पानीपत ने लगभग 74 किलोमीटर दूर खड़े होकर देखा। तब से ही बरबादी की कई कहानियों को यादों में समेटे यह शहर अपने सकोरे में वक्त के सिक्कों को उछालता किसी दरवेश की तरह गाता जाता है:
फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ,नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु।
संडे नई दुनिया में 01 फरवरी 2009 को प्रकाशित
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