Wednesday, December 22, 2010

मोहम्मद रफी के जन्मदिन 24 दिसंबर पर

रफी के गांव में


              पार्थिव कुमार

आम का वह दरख्त अब नहीं रहा जिसके जिस्म पर रफी गांव छोड़ते वक्त अपना नाम खुरच गए थे। नुक्कड़ के उस कच्चे कुएं का नामोनिशान भी मिट चुका है जिसकी मुंडेर पर बैठ कर वह शरारतों की साजिशें रचा करते थे। पिछले तकरीबन 75 बरसों में कोटला सुलतान सिंह में सब कुछ बदल गया है। लेकिन इस छोटे से गांव ने अपने नटखट फिक्को की यादों को बदलाव की तमाम हवाओं से बचा कर ओक में सहेजे रखा है।

पंजाब के अमृतसर जिले में मजीठा से पांच किलोमीटर दूर है कोटला सुलतान सिंह। मशहूर गायक मोहम्मद रफी का जन्म इसी गांव में 24 दिसंबर 1924 को हुआ था। तेरह साल की उम्र में लाहौर में जा बसने से पहले उन्होंने बचपन की अपनी पढ़ाई भी यहीं पूरी की। उस जमाने में अपने तंग कूचों और मिट्टी के चंद घरों के साथ कोटला सुलतान सिंह बाकी दुनिया से कोसों दूर खड़ा हुआ करता था। मगर आज लगभग 200 पक्के मकानों वाले इस गांव में एक हाई स्कूल भी है। तारकोल से ढंकी चौड़ी गलियां हैं और हरेभरे खेतों में बिजली के पंप से पानी की शक्ल में खुशहाली बरसती है।

रफी के बचपन के दोस्त कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘उसे हम फिक्को के नाम से बुलाते थे। फिक्को, सिस्सो यानी बख्शीश सिंह और मैं लुड्डन - हम तीनों जिगरी यार थे। इकट्ठे पढ़ना, एक साथ खेलना और मिल कर मस्ती करना। हमारी शरारतों से समूचा गांव परेशान रहता था। मगर पढ़ने लिखने में भी हमने अपने मास्टर नजीर अहमद को शिकायत का कोई मौका नहीं दिया।’’

85 साल के कुंदन सिंह को देखने, बोलने और सुनने में दिक्कत होती है। चंद कदम चलना भी वाकर के सहारे ही हो पाता है। लेकिन रफी के नाम का जिक्र आते ही उनकी आंखों की पुतलियां चमक उठती हैं। अपनी यादों की पोटली खोलते हुए वह कहते हैं, ‘‘हम तीनों पेड़ से अंबियां तोड़ते और कुएं की मुंडेर पर बैठ कर गप्पें हांकते थे। फिक्को हम तीनों में सबसे शरारती था। ज्यादातर शरारतें उसके ही दिमाग की उपज होती थीं और हम उन्हें अमली जामा पहनाते।’’

रफी को गायकी की तालीम कोटला सुलतान सिंह से जुदा होने के बाद ही मिली। मगर गाने का शौक उन्हें बचपन से ही था। वह अपनी गायों को चराने के लिए उन्हें गांव के बाहर ले जाते और वहां खूब ऊंची आवाज में अपना शौक पूरा करते।

कुंदन सिंह मानते हैं कि गायकी में रफी की कामयाबी एक फकीर की दुआ का नतीजा है। उन्होंने बताया, ‘‘एक दफा गांव में फकीरों की एक टोली आई। वे दरवेश घूम घूम कर गाते चलते थे। फिक्को को उनका गाना अच्छा लगा और उसने उनकी नकल शुरू कर दी। फकीरों में से एक को उसकी आवाज भा गई। उसने फिक्को के सिर पर हाथ रखा और कहा - अल्लाह करे कि तेरी शहद सी मीठी यह आवाज समूची दुनिया में गूंजे।’’

रफी के वालिद हाजी अली मोहम्मद के पास खेती की कोई जमीन नहीं थी। तंगी की वजह से हाजी साहब 1936 में रोजगार की तलाश में लाहौर चले गए। वहां हजामत बनाने का उनका धंधा चल निकला और अगले साल वह अपने समूचे परिवार के साथ लाहौर में ही जा बसे।

कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘हमसे जुदा होते समय फिक्को गमगीन था। हम तीनों दोस्त आम के पेड़ के नीचे मिले। फिक्को ने एक नुकीला पत्थर उठाया और उससे कुरेद कर दरख्त पर अपना नाम और गांव छोड़ने की तारीख लिख दी। उसने कहा - यह अपनी निशानी छोड़ जा रहा हूं मैं। कभी याद आए मेरी तो इसे देख लेना। उस रोज हम तीनों दोस्त एकदूसरे को सीने से भींच कर खूब रोए।’’

रफी कुछ साल तक कोटला सुलतान सिंह के अपने दोस्तों को खत भेजते रहे मगर बाद में यह सिलसिला बंद हो गया। वह संगीत की दुनिया में खो चुके थे और आल इंडिया रेडियो के लाहौर स्टेशन से उनकी आवाज गूंजने लगी थी। उन्होंने लाहौर में रहते ही फिल्मों में गाना शुरू कर दिया था और 1944 में वह बंबई चले गए।

1945 में अपनी ममेरी बहन बशीरा से निकाह करने के बाद रफी कोटला सुलतान सिंह आए। तब तक गायक के तौर पर उनकी शोहरत फैलने लगी थी। कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘मैं और सिस्सो कुछ सकपकाए से थे। अपना यार बड़ा आदमी बन गया है - पता नहीं किस तरह मिले। लेकिन गले लगते ही पल भर में सारी बर्फ पिघल गई और फिर हमने मिल कर वो हुड़दंग मचाई कि कुछ पूछो मत।’’

इसके बाद रफी कभी अपने गांव नहीं आ सके। बंबई में ही अपनी गायकी में मशगूल एक के बाद एक कामयाबी की मंजिलें तय करते गए। गांव की अगली पीढ़ी उनसे मिल तो नहीं पाई मगर उनके गाने गुनगुनाते हुए ही जवान हुई। रफी ने भी कोटला सुलतान सिंह को दिल से जुदा नहीं होने दिया। पंजाब के लेखक हरदीप गिल अपनी किताब के विमोचन के सिलसिले में एक बार रफी से मिलने बंबई गए। जैसे ही उन्होंने बताया कि वह अमृतसर से आए हैं, रफी की बांछें खिल गईं। वह बाकी बातों को दरकिनार कर गिल से अपने गांव और दोस्तों की खोजखबर लेने लगे।

31 जुलाई 1980 को याद कर कुंदन सिंह की आंखें भर आती हैं। कोटला सुलतान सिंह को दुनिया के नक्शे पर एक अलग पहचान दिलाने वाले रफी इस दिन सबको छोड़ गए। उनके इंतकाल की खबर मिलते ही समूचे गांव में सन्नाटा छा गया और गलियों में हफ्तों उदासी गश्त करती रही।

दो साल पहले सिस्सो के भी गुजर जाने के बाद कुंदन सिंह अकेले रह गए हैं। शाम के धुंधलके में अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांक कर दोस्तों को याद करते हैं। सूरज का संतरी गोला लहलहाते खेतों के पीछे जमीन पर उतरने को है। अभी कुछ ही देर में कोटला सुलतान सिंह रात की काली चादर लपेटे और घुटनों के बीच अपने सिर को छिपाए ऊंघ रहा होगा। सर्द हवा में कुछ सरसराहट सी है जैसे दूर कहीं पेड़ों के पीछे बैठे रफी गा रहे हों -

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे ...

जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे

संग संग तुम भी गुनगुनाओगे ...

(हिन्दी मासिक आउटलुक के दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित)





Thursday, November 25, 2010

एक यायावर की डायरी

चोपता की सादगी में है जादू

सुविधा कुमरा



दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैंने चेहरे से कंबल हटा कर खिड़की से झांकने की कोशिश की। बाहर अब भी अंधेरा था। बिस्तर से निकलने की इच्छा जरा भी नहीं थी मगर दरवाजा खोलना पड़ा। सर्द हवा का एक झोंका पल भर में समूचे कमरे को सिहरा गया। हाथ में थरमस उठाए जगत सिंह सामने खड़ा था।

‘‘दीदी, आपकी चाय।’’

मैंने कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘जगत सिंह, मैंने तुम्हें साढ़े छह बजे बुलाया था। अभी तो सिर्फ पांच बजे हैं।’’

‘‘मेरे पास घड़ी नहीं है। खैर, कोई बात नहीं। आप आराम से तैयार हो लीजिए। घोड़ा बाहर आपका इंतजार कर रहा है।’’

जगत सिंह के हाथ से थरमस लेते हुए मैं उसकी चालाकी पर मुस्कराए बिना नहीं रह सकी। बेशक उसके पास घड़ी नहीं थी। फिर भी उसे अच्छी तरह पता था कि अभी साढ़े छह नहीं बजे हैं। वह पौ फटने से पहले इसलिए चला आया था कि दिन भर में तुंगनाथ तक के तीन चक्कर लगा कर अपने मालिक को खुश कर सके।

मैं चोपता पिछली शाम ही पहुंच गई थी। गेस्ट हाउस में सामान डाल कर कुछ देर आराम किया। इसके बाद बिस्किट का एक पैकेट और थरमस में चाय लेकर दूर तक फैले बुग्याल के एक कोने में हरी घास पर पेड़ से पीठ टिका कर बैठ गई। ढलते सूरज की रोशनी में सामने केदारनाथ और चौखंभा की चोटियों पर बर्फ सोने की तरह चमक रही थी। थोड़ी ही दूर पर पहाड़ी चूहों का एक जोड़ा मेरी मौजूदगी से बेखबर लुकाछिपी खेल रहा था।

थरमस का ढक्कन खोल उसमें चाय ढाल ही रही थी कि 13-14 साल का एक लड़का सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘दीदी, घोड़ा चाहिए?’’

‘‘हां, लेकिन अभी नहीं। कल सुबह साढ़े छह बजे।’’

‘‘चार बजे चलें तो सूरज उगने के समय चंद्रशिला से नंदा देवी चोटी बहुत सुंदर दीखती है। बाद में तो बादलों से बर्फ ढंक जाती है।’’

‘‘लेकिन इतनी सुबह उठना मेरे बस का नहीं है।’’

मैंने बिस्किट का पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया। वह सामने बैठ कर उसमें से बिस्किट खाने लगा। मैंने पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘जगत सिंह।’’

‘‘कहां रहते हो?’’

‘‘सारा गांव में।’’

‘‘स्कूल जाते हो?’’

‘‘हां। आठवीं में पढ़ता हूं। घोड़ा मैं सिर्फ गरमी की छुट्टियों में चलाता हूं। समूचे महीने के दो हजार रुपए मिलते हैं। उनसे पढ़ाई का खर्च निकल जाता है। मैं कोई नशा नहीं करता क्योंकि मुझे सेहत बनानी है और बड़ा होकर फौज में भर्ती होना है।’’

‘‘तुम्हारी तरह कितने लोग यहां घोड़ा चलाते हैं?’’

‘‘कुल 20 होंगे जिनमें से आधे बच्चे हैं। सभी बच्चे स्कूल जाते हैं। मेरी तरह वे भी घोड़ा सिर्फ गरमी की छुट्टियों में चलाते हैं।’’

जगत सिंह ने बिस्किट का पैकेट खत्म करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं। नीचे बाजार में भाई मेरा इंतजार कर रहा है। सुबह समय पर तैयार हो जाइएगा। अगर थरमस मुझे दे दें तो सुबह आपके लिए चाय भी लेता आउंगा।’’

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में उखीमठ से 37 किलोमीटर दूर समंदर की सतह से 9515 फीट की ऊंचाई पर बसे चोपता को गांव और कस्बा में से किसी भी खांचे में नहीं डाल सकते। यह सिर्फ एक पड़ाव है जहां केदारनाथ और बदरीनाथ के बीच चलने वाली गाड़ियां सुस्ताने के लिए रुकती हैं। यहां कोई मकान नहीं है। सड़क के किनारे कुछेक ढाबे और चाय की दुकानें हैं। नजदीक ही एक पहाड़ी पर बने टिन की छत वाले कमरों को आप चाहें तो मेरी तरह ही गेस्ट हाउस कह सकते हैं।

चोपता में बिजली अब तक नहीं पहुंची। गेस्ट हाउस के कमरों को रोशन करने के लिए सोलर पैनल लगे हैं। सूरज ठीकठाक निकल गया तो एक इमरजेंसी लाइट चार - पांच घंटों तक जल जाती है। अगर रात में कुछ पढ़ने या लिखने की तबीयत कर जाए तो मोमबत्ती का ही सहारा है। तुंगनाथ और उसके आगे चंद्रशिला के लिए पदयात्रा चोपता से ही शुरू होती है। मगर केदारनाथ, मध्य महेश्वर, तुंगनाथ, कपालेश्वर और रुद्रनाथ की पंच केदार यात्रा करने वाले तीर्थयात्री कम ही होते हैं। अधिकतर तीर्थयात्री चार धाम की यात्रा करते हैं। वे यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ से सीधे बदरीनाथ के लिए रवाना हो जाते हैं। भीड़भाड़ नहीं होने की वजह से ही गढ़वाल के सबसे सुंदर इलाकों में से एक चोपता की कुदरती खूबसूरती और शांति अब भी बरकरार है। बुरांश और बांज के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए आप कई तरह के पंछियों की आवाजें एक साथ सुन सकते हैं।

विजय दशमी के बाद तुंगनाथ मंदिर बंद होते ही चोपता में वीरानी छा जाती है। तुंगनाथ देवता के मक्कूमठ जाने के साथ ही यहां के लोग भी अपने - अपने गांव रवाना हो जाते हैं। लगभग चार महीनों तक बर्फ की चादर ओढ़े समूचा इलाका सन्नाटे में डूबा रहता है। बैसाखी के बाद तुंगनाथ के कपाट खुलने से कुछ पहले चोपता में रौनक लौट आती है। चाय की दुकानों पर केतलियों से भाप उठने लगती है और ढाबे सज जाते हैं। सफाई और रंगरोगन के बाद गेस्ट हाउसों के दरवाजे सैलानियों का इंतजार करने लगते हैं।

पहाड़ों से खिसकते अंधेरे ने बुग्याल को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया था। मैं सरदी से ठिठुरने लगी थी। चोपता में रात उतरने के बाद करने को कुछ भी नहीं होता। चारों तरफ फैली स्याही के बीच ढाबों में धुंधली सी रोशनी टिमटिमाती रहती है। गेस्ट हाउस पहुंच कर गपशप के लिए पड़ोस वाले कमरे में चली गई जहां फ्रांस का एक जोड़ा टिका हुआ था। कोलकाता से आई पांच घुमक्कड़ों की टोली वहां पहले से ही मौजूदा थी और अड्डा जमा हुआ था। बात उमा प्रसाद मुखोपाध्याय की हिमालय यात्राओं की चल पड़ी तो चोपता के मंगल सिंह का नाम का जिक्र भी आया। बंगला के मशहूर यायावर लेखक उमा प्रसाद 60 के दशक में हिमालय की अपनी पदयात्रा के दौरान मंगल सिंह के घर में कई बार रुके थे।

ढाबे में रात के खाने के बाद मैंने उसके मालिक से पूछा, ‘‘काफी पहले यहां एक मंगल सिंह हुआ करते थे। उनके बारे में जानते हैं आप?’’

ढाबे के मालिक ने मुस्करा कर जवाब दिया, ‘‘मंगल सिंह अब भी यहीं रहते हैं। सामने पहाड़ी पर चाय की उनकी दुकान है। उमर काफी हो चुकी है मगर दिन भर अपनी दुकान पर मिलते हैं। खास कर बंगाल से आने वाले यात्री उनसे जरूर मुलाकात करते हैं।’’

अपने कमरे में पहुंच कर बिस्तर में घुसते हुए मैंने सोचा, ‘कल शाम समय निकाल कर मंगल सिंह से मिलूंगी और उनके अनुभवों का साझीदार बनूंगी।’

तैयार होकर कमरे से बाहर निकली तो जगत सिंह अपने घोड़े की जीन कसने में लगा हुआ था। सूरज निकलने में अभी कुछ समय बाकी था। घास पर ओस की बूंदे चमक रही थीं और केदारनाथ और चौखंभा की चोटियों पर चांदी का वर्क चढ़ा था। मैं बिना देर किए घोड़े पर सवार हो गई और हम तुंगनाथ के सफर पर निकल पड़े।

12074 फीट की ऊंचाई पर बसे तुंगनाथ तक पहुंचने के लिए चार किलोमीटर तक खड़ी चढाई है। पैदल चलें तो घुटनों और फेफड़ों का पूरा इम्तहान हो जाता है। घोड़े पर चलना भी कोई सुखद नहीं है। उसके पैर कई बार लड़खड़ाए और मेरे जिस्म का हरेक जोड़ हिल गया। लेकिन आसपास के दिलकश नजारे तकलीफ का एहसास जरा भी नहीं होने देते। रास्ते में हर किलोमीटर पर बने ढाबों में रुक कर आप सांसों को तरतीब और देह को कुछ आराम दे सकते हैं।

बर्फ से ढंकी केदारनाथ और चौखंभा की चोटियां समूचे रास्ते में हमारे साथ थीं। हिम रेखा चोपता से तुंगनाथ के रास्ते में जितनी साफ है उतनी शायद ही कहीं होगी। एक ऊंचाई तक पहुंचते ही पेड़ अचानक गायब हो जाते हैं। बोर्ड तो नहीं लगा मगर लगता है जैसे कुदरत ने फरमान जारी कर दिया हो - इस लकीर के आगे कोई पेड़ नहीं होगा। इसके आगे सिर्फ सब्ज घास फैली है जिस पर इधर उधर चट्टानें और झाड़ियां टंकी हुई हैं।

दो घंटों के अंदर मैं तुंगनाथ पहुंच चुकी थी। मैंने रास्ते में तय कर लिया था कि लौटते समय घोड़े की सवारी करने के बजाय पैदल चलूंगी। मैंने 100 रुपए के दो नोट जगत सिंह की ओर बढ़ा दिए। उसने आग्रह किया, ‘‘दीदी, घोड़े को खिलाने के लिए कुछ दे दो।’’ मैंने 100 रुपए का एक और नोट उसकी हथेली पर रख दिया। मुझे पता था कि इसमें से घोड़े को कुछ नहीं मिलना मगर जगत सिंह के चेहरे पर मुस्कान देख कर अच्छा लगा।

तुंगनाथ पंच केदारों में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर है। पत्थर के खूबसूरत मंदिर के दरवाजे पर शिव की सवारी नंदी खड़ा है। अंदर स्वयंभू भुजा के प्रतीक के तौर पर एक पत्थर है। किंवदंतियों के अनुसार विष्णु ने इसी जगह तपस्या के बाद सुदर्शन चक्र हासिल किया था। इस छोटे से मंदिर परिसर में शिव के विभिन्न रूपों और उनके समूचे परिवार की मूर्तियां हैं।

मैं मंदिर का चक्कर लगाने के बाद सुस्ताने के लिए बैठी ही थी कि एक पुजारी आकर बोला, ‘‘बुखार की कोई दवा हो तो दे दीजिए।’’ मैंने पर्स से क्रोसिन की चार गोलियां निकाल कर उसे थमा दीं। अगले ही पल मेरे इर्दगिर्द कई लोग जमा हो गए। किसी को बुखार है तो किसी को सिरदर्द। किसी को जुखाम है तो किसी के दस्त नहीं रुक रहे। मैंने जरूरत के वक्त के लिए रखी दवा की अपनी पोटली निकाली और अपने विवेक से उन्हें गोलियां बांटने लगी। सबसे नजदीक का दवाखाना कम से कम 35 किलोमीटर दूर होने के कारण तुंगनाथ में दवा सबसे बेशकीमती चीज है।

तुंगनाथ से चंद्रशिला की डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई इस यात्रा का सबसे मुश्किल हिस्सा है। इस रास्ते पर घोड़े नहीं चलते। पैदल ही जाना होता है। इसीलिए समंदर के तल से 13124 फीट ऊंची चंद्रशिला तक बहुत कम सैलानी जाते हैं। तुंगनाथ से आगे जाने की हिम्मत जुटाने वालों में से भी काफी बीच रास्ते से ही लौट आते हैं। चारों ओर फैली घास के बीच पगडंडी पर चलते हुए जैसे - जैसे आप ऊपर पहुंचते हैं आक्सीजन की कमी साफ महसूस होने लगती है। मांसपेशियां थकने लगती हैं और फेफड़ों को अपनी पूरी ताकत लगा देनी होती है। लेकिन घास पर बिखरे रंगबिरंगे फूल आपको आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। इस समूचे इलाके में जंगली फूलों की तकरीबन 400 प्रजातियां हैं।

मैं पुणे से ट्रेकिंग के लिए खास तौर से आए युवाओं के एक दल में शामिल हो गई। उनका गाइड वास्तव में बेहद उत्साही था। थक हार कर बीच से ही लौटने की सोच रहे हम मुसाफिरों को वह लगातार आगे बढ़ने का हौसला देता रहा। घंटा भर बाद हम चोटी पर खड़े थे। वहां पहुंच कर हमें उतनी ही खुशी हुई जितनी एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोरगे ने माउंट एवरेस्ट पर पैर रखने के बाद महसूस की होगी। हम जोर से चिल्ला कर अपनी खुशी का इजहार कर ही रहे थे कि गाइड ने सबको बैठ जाने की हिदायत दी। उसने समझाया, ‘‘इतनी चढ़ाई के बाद अचानक नीचे की ओर देखना खतरनाक हो सकता है। सब लोग थोड़ी देर बैठ कर सुस्ता लें और उसके बाद ही खड़े होकर नीचे झांकें।’’

चंद्रशिला पर एक छोटे से मंदिर में गंगा की मूर्ति है। इसमें कोई पुजारी नहीं रहता। पूजा भी नहीं होती। मौसम साफ हो तो चंद्रशिला पर खड़े होकर आप केदारनाथ और चौखंभा के अलावा नंदा देवी, पंचचुली, बंदरपूंछ और नीलकंठ की चोटियों को निहारते हुए बर्फ की ठंडक को अपने अंदर उतरता महसूस कर सकते हैं।

मैंने सोचा था कि वापसी में ढलान पर उतरना आसान होगा मगर यह मेरी भूल थी। नमी के कारण चट्टानों और घास पर फिसलन थी। एक - दो बार मैं फिसल भी गई मगर खुशकिस्मती से चोट नहीं आई। तुंगनाथ तक पहुंचने से पहले ही मैं बुरी तरह थक चुकी थी। वहां पहुंच कर मैं एक ढाबे में सुस्ताने और खाने के लिए बैठ गई। अरहर और चने की मिलीजुली दाल और पहाड़ी चावल के साथ आलू की रसेदार सब्जी का जायका अलौकिक था।

चोपता वापसी का सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक था। तुंगनाथ से कुछ ही आगे चली थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और ओले भी पड़ने लगे। थोड़ी ही देर में समूची धरती सफेद ओलों से पट चुकी थी। भाग कर एक ढाबे तक पहुंचने से पहले ही मैं पूरी तरह सराबोर हो गई। बारिश रुकने का घंटा भर इंतजार करती रही। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो मैंने भीगते हुए ही चलने का फैसला किया। इस इलाके में बारिश लगभग रोज ही होती है। इसलिए हर ढाबे में 20 रुपए में कामचलाऊ रेनकोट मिल जाता है। मैं तो पहले ही पूरी तरह तरबतर थी मगर कैमरे को बचाने के लिए एक रेनकोट खरीदा और चल पड़ी। ठंड के कारण ओलों के पिघलने की रफ्तार बहुत धीमी थी। उन पर पड़ते ही पैर फिसल जाते थे। धीरे - धीरे चलते हुए किसी तरह गेस्ट हाउस तक पहुंचने के बाद मैंने राहत की सांस ली।

शाम को मैं मंगल सिंह की दुकान पर चाय पी रही थी। उन्नासी साल के मंगल सिंह को देखने और सुनने में दिक्कत होती है। उम्र काफी हो जाने की वजह से बातों में तरतीब भी नहीं है। लेकिन अगर आपके पास सुनने का धैर्य हो तो उनकी यादों की झोली में पूरा एक जमाना छिपा है। आखिर इस शख्स की वजह से ही दुनिया ने चोपता को जाना और पहचाना है। उमा प्रसाद की नजरों को हिमालय को देखने का नजरिया मंगल सिंह ने ही दिया था। उनकी बातें बहुत समझ में नहीं आने के बावजूद मैं उनसे काफी देर तक बतियाती रही। उनके बारे में अखबारों और पत्रिकाओं में छपे लेखों की कतरनों को देखा। फिर उनके ‘विजिटर्स रजिस्टर’ में अपने चंद खयालात दर्ज किए और उनसे विदा लेकर अपने कमरे में लौट आई।

अगले दिन केदारनाथ कस्तूरी मृग अभयारण्य, देवरिया ताल और उखीमठ होते हुए दिल्ली वापसी के सफर में रुद्रप्रयाग तक पहुंचने का विचार था। इसलिए सुबह जल्दी उठ कर सड़क के किनारे लावारिस सी खड़ी अपनी कार की सफाई में लग गई। गेस्ट हाउस में काम करने वाले लड़के देवेन्द्र ने सामान कार में लादते हुए पूछा, ‘‘दीदी, फिर कब आएंगी?’’

मैं सोचने लगी, ‘शायद अगले ही साल या फिर हो सकता है कभी नहीं। इतनी बड़ी दुनिया में देखने और समझने को इतना कुछ है कि दोहराव की गुंजाइश ही नहीं रहती। लेकिन चोपता की खूबसूरती और यहां के लोगों की सादगी और मोहब्बत मेरे दिल में हमेशा बनी रहेगी।’

Monday, October 25, 2010

शख्सियतः के सी पांडेय

पत्थरों में बसती है जिसकी रूह




पार्थिव कुमार

सोलह बरस की नाजुक उमर में कृष्ण चंद्र पांडेय को पत्थरों से प्यार हो गया। समय गुजरने के साथ इस मोहब्बत ने दीवानगी की शक्ल ले ली और तकरीबन 35 साल बाद अब तो उनके खयालों और ख्वाबों में हर पल पत्थर ही बसते हैं। जमाना जिन पत्थरों को ठोकर मार कर आगे निकल जाता है कृष्ण चंद्र उनमें कायनात की खूबसूरती और जिंदगी के रंगों को तलाशते हैं।


कृष्ण चंद्र के पत्थरों के खजाने में हजारों रंगबिरंगे अजूबे शामिल हैं। उनके पास कच्चे सोने, चांदी और लोहे के अलावा डायनासौर के अंडे तथा चांद और मंगल की सतह की चट्टानों के टुकड़े भी हैं। अपने इन बेशकीमती पत्थरों को उन्होंने नासिक, नोएडा और दिल्ली में म्यूजियम खोल कर उनमें सजा रखा है।


पत्थरों को लेकर अपने जुनून के बारे में कृष्ण चंद्र बताते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश में बांदा जिले के अपने गांव में 12 वीं पास करने के बाद मैं इंजीनियरी की पढ़ाई के लिए पुणे पहुंचा। वहां खदानों के चारों तरफ दूर तक पत्थर बिखरे पड़े होते थे। उनके बीच से गुजरते हुए मुझे जो भी पत्थर सुंदर लगता उसे मैं उठा लिया करता। इस तरह पत्थरों में मेरी दिलचस्पी शुरू हुई जो लगातार बढ़ती गई।’’


वह कहते हैं, ‘‘मैंने भूगोल या भूगर्भ विज्ञान में कोई औपचारिक तालीम नहीं ली थी। इसलिए पत्थरों के बारे में जानकारियां जुटाने में बहुत कठिनाई होती थी। छुट्टियों में अक्सर मैं मुंबई चला जाता और वहां पटरी बाजारों में पत्थरों और खनिजों के बारे में किताबें ढूंढा करता।’’


कृष्ण चंद्र कई बरसों तक नौसेना में एयर इंजीनियर के पद पर काम करते रहे। इस दौरान उनके साथियों और सीनियरों ने पत्थर इकट्ठा करने के काम में उनकी खूब हौसला आफजाई की। लेकिन उनकी मां को हमेशा शिकायत रहती, ‘‘दुनिया तो पत्थरों से पैसा कमा रही है। लेकिन समूचे जग से निराला मेरा यह बेटा खेत बेच कर घर में पत्थर भर रहा है।’’




देश की पाषाण विरासत के बारे में जागरूकता फैलाने और इनकी हिफाजत में तन, मन और धन से जुट जाने को बेताब कृष्ण चंद्र ने नौसेना से वक्त से पहले रिटायरमेंट ले लिया। साल 2001 में उन्होंने नासिक में गारगोटी खनिज संग्रहालय खोला जो अपने ढंग का देश का पहला म्यूजियम है। बाद में नोएडा के सेक्टर 18 और दिल्ली के खड़ग सिंह मार्ग में राजीव गांधी हस्तशिल्प भवन के गारगोटी म्यूजियम भी इस कड़ी में जुड़ गए।


कृष्ण चंद्र बताते हैं, ‘‘हमारे म्यूजियमों में ज्यादातर जियोलाइट यानी ज्वालामुखी के लावे से बने हुए पत्थर हैं। इनमें से कई तो साढ़े छह करोड़ साल पुराने हैं। बाकी पत्थरों और खनिजों को भी हमने म्यूजियम में जगह दी है। इन पत्थरों को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और अन्य राज्यों से इकट्ठा किया गया है।’’


वह कहते हैं, ‘‘हमने म्यूजियमों में सिर्फ उन पत्थरों को रखा है जो वाकई खूबसूरत हों और जिनका इस्तेमाल सजावट में किया जा सके। इन पत्थरों को सिर्फ पानी से साफ किया जाता है और इन पर कोई पालिश नहीं की गई। इन पत्थरों के अंदर की नमी को बचाए रखने पर खास ध्यान दिया जाता है ताकि इनकी चमक बरकरार रहे।’’


50 साल के कृष्ण चंद्र को इस बात का अफसोस है कि देश में सजावटी पत्थरों और खनिज की अहमियत को अब तक नहीं समझा गया। वह कहते हैं, ‘‘अमरीका, जापान और यूरोपीय देशों में इन पत्थरों और खनिजों को लेकर काफी जागरूकता है। अगर हमारे देश में भी ऐसी जागरूकता आ जाए तो हम इनकी बेहतर ढंग से हिफाजत और इस्तेमाल कर सकेंगे।’’


कृष्ण चंद्र कहते हैं, ‘‘ देश की खनिज संपदा खास तौर से पिछड़े इलाकों में है। अगर सजावटी पत्थरों के भंडारों का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो इससे इन इलाकों से गरीबी मिटाने में भी काफी हद तक मदद मिल सकती है।’’

Wednesday, June 23, 2010

पार्क एस्टेट

जार्ज एवरेस्ट की खस्ताहाल यादगार

पार्थिव कुमार
कई बार कोई जगह यूं ही बहुत अच्छी लगने लगती है। पार्क एस्टेट के साथ मेरा लगाव भी कुछ ऐसा ही है। जब भी मसूरी या इसके आसपास से गुजरना होता है हिन्दुस्तान के पहले सर्वेयर जनरल जार्ज एवरेस्ट की इस खस्ताहाल कोठी तक जरूर जाता हूं। इसके सामने घास की हरी चादर पर घंटों लेटे रहना और हिमालय को निहारना काफी सुकून देता है। आसमान साफ हो तो पल्लों को खुद से जुदा कर चुकी इसकी खिड़कियों से नीचे दून घाटी साफ नजर आती है। बारिश होने वाली हो तो बादल आपके इर्दगिर्द से गुजर रहे होते हैं और हवा में चीड़ की भीनी खुशबू फैल जाती है।
लेकिन लगभग 200 साल पुरानी इस इमारत की मौजूदा हालत को देख कर अफसोस भी होता है। इसका बाईं ओर का एक बड़ा हिस्सा ढह चुका है। खिड़कियों के अलावा दरवाजों के पल्ले भी गायब हैं। रसोईघर की फर्श और दीवारों पर की टाइल्स टूटी हुई हैं। कोठी के सामने जमीन के अंदर बनी पानी की गहरी टंकियां खुली हुई हैं जिनमें कभी भी कोई गिर सकता है। आसपास के गांवों के मवेशी इस इमारत में पनाह लेते हैं और इसके कमरों में उनके मलमूत्र की बदबू छाई रहती है।
पार्क एस्टेट को बदरंग बनाने में आसपास के गांवों के लोगों ने भी सैलानियों का पूरा हाथ बटाया है। इसकी दीवारों पर सैंकड़ों नाम और मोहब्बत के पैगाम खुरचे हुए हैं। कोठी के अंदर ही बच्चे खाने पीने की चीजें बेचते हैं। उन्होंने दीवारों पर कोयले से अपनी रेट लिस्ट कुरेद रखी है। सफाई का कोई इंतजाम नहीं होने के कारण कमरों में प्लास्टिक की प्लेटें और गिलास, पानी की खाली बोतलें तथा बचा खुचा खाना बिखरा रहता है।
दुनिया की सबसे अूंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट का नामकरण सर जार्ज के नाम पर ही किया गया था। उनकी यह कोठी और लैबोरेटरी ऐतिहासिक तौर पर बहुत अहमियत रखती है। भारतीय उपमहाद्वीप को दो हिस्सों में बांटने वाला 78 वां मेरीडियन इस इमारत के बीचों बीच से होकर गुजरता है।
जार्ज एवरेस्ट का जन्म 1790 में हुआ था और 1818 में वह ब्रिटेन की फौज में आ गए। बाद में वह 1806 में उपमहाद्वीप का त्रिकोणमितीय सर्वे आरंभ करने वाले विलियम लैम्बटन के सहयोगी बने। लैम्बटन की 1823 में मौत के बाद सर जार्ज को सर्वे का सुपरिंटेंडेंट बनाया गया और 1830 में वह हिन्दुस्तान के पहले सर्वेयर जनरल बने। वह 1843 में रिटायर होने के बाद ब्रिटेन चले गए और लंदन में 1866 में उनका निधन हो गया।
173 एकड़ में फैले पार्क एस्टेट में सर जार्ज 1830 से 1843 तक रहे और काम किया तथा बाद में इसे किराए पर दे दिया। इसके बाद यह कोठी मशहूर स्किनर परिवार समेत कई हाथों से गुजरती हुई मसूरी के शाह घराने के पास आई और अब इस पर उत्तराखंड सरकार का अधिकार है। राज्य सरकार ने कई साल पहले सर्वे आफ इंडिया के सहयोग से इसमें एक म्यूजियम खोलने की योजना बनाई थी जिस पर अब तक अमल नहीं किया गया।
किसी ऐतिहासिक धरोहर को बचाए रखने का सबसे अच्छा तरीका स्थानीय लोगों को उसकी अहमियत से वाकिफ कराना और हिफाजत के काम में उन्हें सहयोगी बनाना है। अगर पार्क एस्टेट के आसपास के गांवों के लोगों को इसका महत्व बताया जाए तो वे इसे नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और सैलानियों को भी ऐसा करने से रोकेंगे। मगर इस ओर सरकार की उदासीनता की वजह से सर जार्ज की यह बेहतरीन यादगार जमींदोज होने के कगार पर खड़ी है।
नोटः पार्क एस्टेट जाने के लिए देहरादून से जाते हुए मसूरी से पांच किलोमीटर पहले हाथी पांव की ओर बाएं मुड़ें। जीप से इस इमारत तक पहुंचना मुमकिन है मगर हाथी पांव से विशिंग वेल होते हुए पैदल जाना बेहतर होगा। पार्क एस्टेट के नजदीक ईको प्वाइंट और बिनोग वन्यजीव अभ्यारण्य अन्य दर्शनीय स्थल हैं।

Sunday, March 28, 2010

दिल्ली की दहलीजः भानगढ़


भुतहे खंडहरों का सच
पार्थिव कुमार
अरावली की गोद में बिखरे भानगढ़ के खंडहरों को भले ही भूतों का डेरा मान लिया गया हो मगर सोलहवीं सदी के इस किले की घुमावदार गलियों में कभी जिंदगी मचला करती थी। किले के अंदर करीने से बनाए गए बाजार, खूबसूरत मंदिरों, भव्य महल और तवायफों के आलीशान कोठे के अवशेष राजावतों के वैभव का बयान करते हैं। लेकिन जहां घुंघरुओं की आवाज गूंजा करती थी वहां अब शाम ढलते ही एक रहस्यमय सन्नाटा छा जाता है। दिन में भी आसपास के गांवों के कुछेक लोग और इक्कादुक्का सैलानी ही इन खंडहरों में दिखाई देते हैं।
भानगढ़ में भूतों को किसी ने भी नहीं देखा। फिर भी इसकी गिनती देश के सबसे भुतहा इलाकों में की जाती है। इस किले के रातोंरात खंडहर में तब्दील हो जाने के बारे में कई कहानियां मशहूर हैं। इन किस्सों का फायदा कुछ बाबा किस्म के लोग उठा रहे हैं जिन्होंने खंडहरों को अपने कर्मकांड के अड्डे में तब्दील कर दिया है। इनसे इस ऐतिहासिक धरोहर को काफी नुकसान पहुंच रहा है मगर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।
राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का नॅशनल पार्क के एक छोर पर है भानगढ़। इस किले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भगवंत दास के छोटे बेटे और मुगल शहंशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मानसिंह के भाई माधो सिंह ने बाद में इसे अपनी रिहाइश बना लिया।
भानगढ़ का किला चहारदीवारी से घिरा है जिसके अंदर घुसते ही दाहिनी ओर कुछ हवेलियों के अवशेष दिखाई देते हैं। सामने बाजार है जिसमें सड़क के दोनों तरफ कतार में बनाई गई दोमंजिली दुकानों के खंडहर हैं। किले के आखिरी छोर पर दोहरे अहाते से घिरा तीन मंजिला महल है जिसकी अूपरी मंजिल लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है।
चहारदीवारी के अंदर कई अन्य इमारतों के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इनमें से एक में तवायफें रहा करती थीं और इसे रंडियों के महल के नाम से जाना जाता है। किले के अंदर बने मंदिरों में गोपीनाथ, सोमेश्वर, मंगलादेवी और क्ेशव मंदिर प्रमुख हैं। सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बावली है जिसमें अब भी आसपास के गांवों के लोग नहाया करते हैं।
मौजूदा भानगढ़ एक शानदार अतीत की बरबादी की दुखद दास्तान है। किले के अंदर की इमारतों में से किसी की भी छत नहीं बची है। लेकिन हैरानी की बात है कि इसके मंदिर लगभग पूरी तरह सलामत हैं। इन मंदिरों की दीवारों और खंभों पर की गई नफीस नक्काशी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समूचा किला कितना खूबसूरत और भव्य रहा होगा।
माधो सिंह के बाद उसका बेटा छतर सिंह भानगढ़ का राजा बना जिसकी 1630 में लड़ाई के मैदान में मौत हो गई। इसके साथ ही भानगढ़ की रौनक घटने लगी। छतर सिंह के बेटे अजब सिंह ने नजदीक में ही अजबगढ़ का किला बनवाया और वहीं रहने लगा। आमेर के राजा जयसिंह ने 1720 में भानगढ़ को जबरन अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस समूचे इलाके में पानी की कमी तो थी ही 1783 के अकाल में यह किला पूरी तरह उजड़ गया।
भानगढ़ के बारे में जो किस्से सुने जाते हैं उनके मुताबिक इस इलाके में सिंघिया नाम का एक तांत्रिक रहता था। उसका दिल भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती पर आ गया जिसकी सुंदरता समूचे राजपुताना में बेजोड़ थी। एक दिन तांत्रिक ने राजकुमारी की एक दासी को बाजार में खुशबूदार तेल खरीदते देखा। सिंघिया ने तेल पर टोटका कर दिया ताकि राजकुमारी उसे लगाते ही तांत्रिक की ओर खिंची चली आए। लेकिन शीशी रत्नावती के हाथ से फिसल गई और सारा तेल एक बड़ी चट्टान पर गिर गया। अब चट्टान को ही तांत्रिक से प्रेम हो गया और वह सिंघिया की ओर लुढकने लगा।
चट्टान के नीचे कुचल कर मरने से पहले तांत्रिक ने शाप दिया कि मंदिरों को छोड़ कर समूचा किला जमींदोज हो जाएगा और राजकुमारी समेत भानगढ़ के सभी बाशिंदे मारे जाएंगे। आसपास के गांवों के लोग मानते हैं कि सिंघिया के शाप की वजह से ही किले के अंदर की सभी इमारतें रातोंरात ध्वस्त हो गईं। उनका विशवास है कि रत्नावती और भानगढ़ के बाकी निवासियों की रूहें अब भी किले में भटकती हैं और रात के वक्त इन खंडहरों में जाने की जुर्रत करने वाला कभी वापस नहीं आता।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सूरज ढलने के बाद और उसके उगने से पहले किले के अंदर घुसने पर पाबंदी लगा रखी है। दिन में भी इसके अंदर खामोशी पसरी रहती है। कई सैलानियों का कहना है कि खंडहरों के बीच से गुजरते हुए उन्हें अजीब सी बेचैनी महसूस हुई। किले के एक छोर पर केवड़े के झुरमुट हैं। तेज हवा चलने पर केवड़े की खुशबू चारों तरफ फैल जाती है जिससे वातावरण और भी रहस्यमय लगने लगता है।
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो भानगढ़ के भुतहा होने के बारे में कहानियों पर यकीन नहीं करते। नजदीक के कस्बे गोला का बांस के किशन सिंह का अक्सर इस किले की ओर आना होता है। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इसमें कुछ भी रहस्यमय दिखाई नहीं देता। संरक्षित इमारतों में रात में घुसना आम तौर पर प्रतिबंधित ही होता है। किले में रात में घुसने पर पाबंदी तो लकड़बग्घों, सियारों और चोर - उचक्कों की वजह से लगाई गई है जो किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं।’’
बाकी इमारतों के ढहने और मंदिरों के सलामत रहने के बारे में भी किशन सिंह के पास ठोस तर्क है। उन्होंने कहा, ‘‘सरकार के हाथों में जाने से पहले भानगढ़ के किले को काफी नुकसान पहुंचाया गया। मगर देवी - देवताओं से हर कोई डरता है इसलिए मंदिरों को हाथ लगाने की हिम्मत किसी की भी नहीं हुई। यही वजह है कि किले के अंदर की बाकी इमारतों की तुलना में मंदिर बेहतर हालत में हैं।’’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने किले के अंदर मरम्मत का कुछ काम किया है। लेकिन निगरानी की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण इसके बरबाद होने का खतरा बना हुआ है। किले में भारतीय पुरातत्व सवेक्षण का कोई दफ्तर नहीं है। दिन में कोई चौकीदार भी नहीं होता और समूचा किला बाबाओं और तांत्रिकों के हवाले रहता है। वे इसकी सलामती की परवाह किए बिना बेरोकटोक अपने अनुष्ठान करते हैं। आग की वजह से काली पड़ी दीवारें और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के टूटेफूटे बोर्ड किले में उनकी अवैध कारगुजारियों के सबूत हैं।
दिलचस्प बात यह है कि भानगढ़ के किले के अंदर मंदिरों में पूजा नहीं की जाती। गोपीनाथ मंदिर में तो कोई मूर्ति भी नहीं है। तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए अक्सर उन अंधेरे कोनों और तंग कोठरियों का इस्तेमाल किया जाता है जहां तक आम तौर पर सैलानियों की पहुंच नहीं होती। किले के बाहर पहाड़ पर बनी एक छतरी तांत्रिकों की साधना का प्रमुख अड्डा बताई जाती है। इस छतरी के बारे में कहते हैं कि तांत्रिक सिंघिया वहीं रहा करता था।
भानगढ़ के गेट के नजदीक बने मंदिर के पुजारी ने इस बात से इनकार किया कि किले के अंदर तांत्रिक अनुष्ठान चलते हैं। लेकिन इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था कि खंडहरों के अंदर दिखाई देने वाली सिंदूर से चुपड़ी अजीबोगरीब शक्लों वाली मूर्तियां कैसी हैं? किले में कई जगह राख के ढेर, पूजा के सामान, चिमटों और त्रिशूलों के अलावा लोहे की मोटी जंजीरें भी मिलती हैं जिनका इस्तेमाल संभवतः उन्मादग्रस्त लोगों को बांधने के लिए किया जाता है। किसी मायावी अनुभव की आशा में भानगढ़ जाने वाले सैलानियों को नाउम्मीदी ही हाथ लगती है। मगर राजपूतों के स्थापत्य की बारीकियों को देखना हो तो वहां जरूर जाना चाहिए। किले के अंदर बरगद के घने पेड़ और हरीभरी घास पिकनिक के लिए दावत देती है। लेकिन अगर आप वहां चोरी से भूतों के साथ एक रात गुजारने की सोच रहे हों तो जान लें कि भूत भले ही नहीं हों, जंगली जानवर और कुछ इंसान खतरनाक हो सकते हैं।