Sunday, April 26, 2009

बेगम समरू की खूबसूरत यादगार है

सरधना का गिरजाघर
पार्थिव कुमार
सरधना उत्तर प्रदेश में मेरठ के नजदीक एक छोटा सा कस्बा है जिसकी सांसों में बेनजीर खूबसूरती की मलिका बेगम समरू की रूह बसती है। बेगम समरू, यानी फरजाना, यानी जेबुन्निसा जो दिल्ली के चावड़ी बाजार के एक कोठे से निकल कर दौलत, ताकत और शोहरत की बुलंदियों तक पहुंची और मुगलकालीन इतिहास का एक बेहद दिलचस्प पन्ना बन गई। इस छोटे से कस्बे की 18 वीं और 19 वीं सदी की इमारतें, टूटीफूटी सड़कें और आबोहवा अपने दामन में इतिहास का वही पन्ना समेटे हुए हैं।
फरजाना की मां चावड़ी बाजार में तवायफ थी जिसे बाद में मेरठ के करीब कोटाना के असद खान ने अपनी रखैल बना लिया था। फरजाना का जन्म कोटाना में ही 1753 में हुआ। इसके सात साल बाद ही असद की मौत हो गई और मां और बेटी को दिल्ली लौटना पड़ा। दोनों कुछ दिन कश्मीरी गेट के नजदीक रहने के बाद जामा मस्जिद इलाके में बस गईं। उसी साल फरजाना को चावड़ी बाजार की एक तवायफ खानम जान के सुपुर्द कर उसकी मां इस दुनिया से रुखसत हो गई।
खानम जान के कोठे पर ही 1767 में फरजाना की मुलाकात भाड़े की सेना चलाने वाले वाल्टर रेनहार्ट सोम्ब्रे से हुई। उम्र में फरजाना से तीस साल बड़ा रेनहार्ट इस कमसिन सुंदरता पर फिदा हो गया। दोनों के दिल मिले और फरजाना चांदनी चैक की रौनक को पीछे छोड़ अपने आशिक के साथ एक ऐसे लंबे सफर पर निकल पड़ी जिसकी मंजिल का उसे कोई अंदाजा नहीं था। दोनों लखनअू , रोहिलखंड, आगरा, भरतपुर और डीग होते हुए आखिर में सरधना पहुंच गए।
जर्मनी का रेनहार्ट 1754 में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आया था। उसकी फौज भारी रकम मिलने पर किसी के लिए भी काम करने को तैयार रहती थी। मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर उसने सहारनपुर के रोहिल्ला लड़ाके जाबिता खान को शिकस्त दी। इससे खुश होकर शाह आलम ने दोआब में एक बड़ी जागीर रेनहार्ट के नाम कर दी और वह सरधना में ही बस गया। लेकिन इसके पांच साल बाद ही रेनहार्ट दुनिया से कूच कर गया और 18 यूरोपीय अफसरों और 4000 सैनिकों की उसकी फौज फरजाना के हाथों में आ गई।
शौहर के इंतकाल के तीन साल बाद फरजाना ने ईसाइयत कबूल कर ली और जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे बन गई। बाद में सोम्ब्रे का सोम्बर हुआ और फिर फरजाना बन गई बेगम समरू। लड़ाई के मैदान से कूटनीति के अखाड़े तक बेगम समरू की तूती बोलती थी और हालात खिलाफ होने के बावजूद वह 1837 में अपनी मौत होने तक सरधना की जागीर पर काबिज रही। उसने शाह आलम की मदद कर उसका दिल जीत लिया और उसकी मुंहबोली बेटी बन गई। हुआ यह कि बघेल सिंह की अगुवाई में 30000 सिखों ने 1783 में दिल्ली पर हमला बोल दिया और उस जगह तक पहुंच गए जिसे अब तीस हजारी के नाम से जाना जाता है। तब बेगम समरू ने ही शाह आलम और सिखों के बीच सुलह कराई और बघेल कीमती तोहफों का खजाना लेकर लौट गया।
चार साल बाद नजफ कुली खान की बगावत को नाकाम करने में भी बेगम समरू ने शाह आलम की मदद की। इसके बाद शाह आलम ने सरधना की जागीर पर रेनहार्ट की पहली बीवी के बेटे नवाब जफरयाब खान के दावे को खारिज कर दिया और बेगम समरू जायदाद की इस जंग में भी कामयाब रही।
बेगम समरू की आशिकमिजाजी के भी कई किस्से मशहूर हैं मगर उनका कोई पुख्ता ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता। उसके दीवानों में फ्रांस के ली वसाउ और आयरलैंड के जार्ज थामस का खूब जिक्र आता है। बेगम समरू को अपनी ही फौज के अफसर ली वसाउ से 1793 में निकाह करने के बाद सैनिकों की बगावत का सामना करना पड़ा। बागी सैनिकों से घिर जाने पर वसाउ ने अपने सिर में गोली मार ली। बेगम समरू ने भी खंजर घोंप कर खुदकुशी की कोशिश की मगर वह इसमें कामयाब नहीं हुई।
1803 में बेगम समरू ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मुख्तारी कबूल कर ली और अपनी जागीर और अकूत जायदाद दोनों को ही बचाने में सफल रही। अब उसकी दिलचस्पी स्थापत्य की ओर हुई और उसने कई शानदार इमारतें बनवाई। दिल्ली के चांदनी चैक में मुगल बादशाह अकबर शाह से मिली जमीन पर उसने एक बेहद खूबसूरत हवेली बनवाई जिसमें अब बिजली के सामान का एशिया का सबसे बडा बाजार भागीरथ पैलेस है। मगर उसे याद किया जाता है सरधना के चर्च आफ लेडी आफ ग्रेसेस और आसपास की इमारतों के लिए जिनमें रोमन और मुगल स्थापत्य एकदूसरे के आगोश में गुंथे हुए हैं।

सरधना की हर सड़क गिरजाघर तक जाती है। किसी से पूछने के लिए रुको इससे पहले ही लोग हाथ के इशारे से उस तक का रास्ता बता देते हैं। आखिर उनके कस्बे की पहचान जो इससे जुड़ी है। सैंकड़ों पावरलूम की कभी नहीं रुकने वाली धकधक के साथ यह गिरजाघर भी उनके दिलों में हमेशा के लिए समाया हुआ है।
उत्तर भारत के इस सबसे बड़े गिरजाघर को बनाने में लगभग 11 साल और चार लाख रुपए लगे और यह 1822 में बन कर तैयार हुआ। इसके आर्किटेक्ट इटली के अंतोनियो रेगेलिनी थे और इसमें रोम के सेंट पीटर्स के अलावा मुगल स्थापत्य की छाप साफ दिखाई देती है। पहले यह गिरजाघर कैथेड्रल था मगर 1961 में इसे पोप से माइनर बेसिलिका का दर्जा मिल गया। इसे बनाने के लिए जिस जगह से मिट्टी निकाली गई वहां दो सुंदर तालाब बन गए हैं।
अहाते के गेट से गिरजाघर की दूरी तकरीबन 100 मीटर है। रास्ता आम के बगीचे को चीरता हुआ गुजरता है। इसके दोनों तरफ ईसा मसीह की सलीब यात्रा के 14 मुकामों को सफेद मूर्तियों के जरिए दिखाया गया है। रास्ता अपने दोनों हाथ फैलाए ईसा मसीह की एक मूर्ति के सामने जाकर खत्म होता है। लेकिन गिरजाघर का मुख्य दरवाजा इसके सामने नहीं है। इस दरवाजे तक पहुंचने के लिए दाहिनी ओर मु़़ड़ कर जाना होता है।
गिरजाघर को सामने से कुछ फासले से देखने पर ही उसकी मुकम्मल खूबसूरती का एहसास होता है। लगता है जैसे बेगम समरू का सादगी से भरा अभिजात हुस्न आंखों के सामने बिखरा पड़ा हो। सामने का बरामदा 18 खंभों पर टिका हुआ है। छत पर बने तीन गुंबदों में बीच वाला बड़ा है और उसके आजूबाजू वाले छोटे। पीछे से दो मीनारें आसमान में सूराख करने के लिए उचक रही हैं। गुंबदों और मीनारों पर लगे धातु के गोले और क्रास इतने साल बीत जाने के बावजूद सूरज की रोशनी में चेहरे पर सुनहरा आईना चमकाते हैं।
अंदर घुसते ही ठीक सामने एक बडा चबूतरा है जिस पर मदर मैरी अपने शिशु को गोद में लिए हैं। इसके नीचे सलीब पर ईसा मसीह की मूर्ति है। चबूतरा और उसके आसपास का हिस्सा राजस्थान से लाए गए संगमरमर से बना है। उस पर रंगीन पत्थरों से फूल उकेरे गए हैं। दोनों तरफ दो और चबूतरे हैं जिनमें से एक पर लेडी आफ ग्रेसेस और दूसरे पर ईसा मसीह की मूर्ति है। लकड़ी पर चुनींदा रंगों से बनी लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति इटली से लाकर 1957 में इस गिरजाघर में लगाई गई थी।
इन चबूतरों पर गुंबदों के रोशनदानों से छन कर आती सूरज की रोशनी में मूर्तियां और मेहराबों की पच्चीकारी चमक उठती है। गिरजाघर में संगमरमर और रंगीन पत्थरों के बेहतरीन इस्तेमाल को देख कर अचानक ही ताजमहल आंखों के सामने कौंध उठता है। बड़े चबूतरे की बाईं ओर बेगम समरू की कब्र है जिस पर 8 फीट का संगमरमर का स्मारक है जिसे इटली के मशहूर मूर्तिकार अदामो तादोलीनी ने बनाया था। इसकी चोटी पर बेगम समरू खास मुस्लिम अंदाज में बैठी है। उसके नीचे बेगम के सौतेले नाती और वारिस डेविड आक्टरलोनी डाइस सोम्ब्रे और तीन सलाहकारों की मूर्तियां हैं। सबसे नीचे खड़ी छह मूर्तियां निडरता, ज्ञान, तसल्ली और संपन्नता का प्रतीक हैं।
ईसाई बनने के बाद भी बेगम समरू तमाम जिंदगी अपनी इस्लामी जड़ों से नाता नहीं तोड़ सकी। जिस्म पर दिल्ली की नजाकत ओढ़े हिन्दुस्तान की इस पहली ईसाई जागीरदार का दिल किसी सूफी फकीर की तरह था। क्रिसमस के मौके पर सरधना में होने वाले तीन दिनों के जश्न में भोज के अलावा नाचगाना, आतिशबाजी और मुशायरा भी शामिल रहता था। फरसू के नाम से लिखने वाले फ्रांज गोटलिएब कोहेन समेत उसकी फौज के तीन यूरोपीय कमांडर तो उर्दू में शायरी भी करने लगे थे।
बेगम समरू की जागीर में हिंदू , मुस्लिम और ईसाई के बीच कोई फर्क नहीं था। क्रिसमस के अलावा ईद, दशहरा, दिवाली और होली का त्यौहार भी धूमधाम से मनाया जाता था। सरधना का गिरजाघर अब भी मजहबों के बीच भाईचारे का उसका पैगाम देता है। इसमें हर मजहब के लोग लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति के आगे सिर झुका कर मन्नत मांगने आते हैं।
गिरजाघर के बगल में जिस इमारत में कभी बिशप रहा करते थे वह अब लड़कियों का स्कूल है। अहाते के ठीक सामने बने बेगम के पुराने महल में अब सेंट जोंस सेमीनरी चलती है। यह महल रेनहार्ट को सरधना की जागीर मिलने से पहले का है। बेगम समरू सरधना आने से लेकर अपने इंतकाल के कुछ पहले तक इसी महल में रही। उसने अपने लिए जो नया महल बनवाना शुरू किया था वह उसके गुजरने से एक साल पहले ही तैयार हो सका। मुगल शैली में बने पुराने महल का बरामदा काफी शानदार है। वक्त के साथ की गई तब्दीलियों के बावजूद इस महल के पुराने वैभव को महसूस किया जा सकता है। महल के तहखाने में कमरे बने हैं जिनमें गर्मी के दिनों में बेगम और उसका परिवार रहा करता था। लेकिन अब सरधना में जमीन में पानी का स्तर बढ़ जाने की वजह से इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता। मानसून में इन कमरों में पानी भर जाता है और सीलन तो समूचे साल ही बनी रहती है।
नए महल में अब इंटर कालेज चलता है। यूनानी शैली में बने इस महल में बेगम के गुसलखाने खास तौर से देखने लायक हैं। इनकी संगमरमर की दीवारों पर नफीस पच्चीकारी है। लेडी फारेस्टर अस्पताल और अंतोन कोठी बेगम से सीधे तौर पर रिश्ता नहीं रखने के बावजूद उनकी यादों से जुड़े हैं। अस्पताल को डाइस की बीवी ने बेगम समरू के धन से बनवाया था और रेगेलिनी के बंगले अंतोन कोठी का इस्तेमाल चर्च से जुडे लोगों की रिहाइशके लिए किया जाता है।
सरधना की रूह तक उतरने के लिए इन सब के अलावा कैथोलिक कब्रगाह पर भी एक नजर डालना जरूरी है। इसमें रेनहार्ट और रेगेलिनी के परिवारवालों के अलावा बेगम का दूसरा शौहर वसाउ भी दफन है। नजदीक ही कर्नल जान रेमी सालेउर की कब्र भी है जिसने 1795 में सैनिकों की बगावत के दौरान बेगम समरू का साथ दिया था। बेगम के खानदान के लोगों की कब्रों पर बने मकबरों को देख कर लगता है कि किसी जमाने में वे बहुत ही खूबसूरत रहे होंगे मगर अब उनकी हालत एकदम खस्ता है।
कब्रों के अंदर सिर्फ मुरदे नहीं सोते बल्कि जिंदगियों से जुड़ी कई जिंदा कहानियां भी दफन होती हैं। लेकिन इन कब्रों में से ज्यादातर पर लिखी इबारत को पढ़ पाना अब मुमकिन नहीं है। इन टूटीफूटी कब्रों के बीच से गुजरते हुए जिंदगी की नश्वरता का आभास होता है। लेकिन इस सचाई से रूबरू कराने के लिए आप ईश्वर के बजाय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का शुक्रिया अदा कर सकते हैं जिस पर कब्रिस्तान की देखभाल की जिम्मेदारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में इन मकबरों का वजूद कम से कम इस खस्ता हाल में भी बना रहेगा।
संडे नई दुनिया में 12 अक्टूबर 2008 को प्रकाशित

2 comments:

  1. Mr.Partiv,

    Thank you for this valuable information. You are very nicely captured panipat history in this article.

    Ganesh Salunke.

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  2. बेहद खूबसूरत ढंग से दी गई इस जानकारी के लिये आपको साधुवाद पार्थिव जी।

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