Sunday, May 31, 2009

दीदारे दिल्ली 2: कोरोनेशन पार्क

एक शहंशाह की उजड़ी यादें
पार्थिव कुमार
दिल्ली के हाशिए पर खड़ी जार्ज पंचम की 60 फुट की कद्दावर मूर्ति उदासी और बेबसी की जीती - जागती तस्वीर है। तकरीबन 97 साल पहले इसी जगह ब्रिटेन के इस शहंशाह को हिंदुस्तान का ताज पहनाया गया था। उस दिन इस मैदान में एक लाख लोग जमा थे। लेकिन अब गाहेबेगाहे ही कोई इस ओर आता है। शहंशाह के दरबारियों में से भी ज्यादातर ने उसका साथ छोड़ दिया है।
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान दिल्ली में हुए तीन दरबारों का गवाह है शहर के उत्तरी छोर पर ढाका गांव के नजदीक बना यह राज्याभिषेक स्मारक। इनमें से पहला दरबार लार्ड लिटन ने 1877 में मलिका विक्टोरिया की ताजपोशी के मौके पर लगाया था। दूसरा दरबार 1903 में लार्ड कर्जन ने एडवर्ड सप्तम के शहंशाह बनने पर किया। लेकिन इन दोनों से ज्यादा अहम था 1911 का जार्ज पंचम का दरबार जिसने दिल्ली की तस्वीर और तकदीर दोनों ही बदल दी।
जार्ज पंचम ने हिंदुस्तान का ताज पहनने के बाद देश में अंग्रेजी हुकूमत की राजधानी कलकत्ता से हटा कर दिल्ली लाने का ऐलान किया। इसके साथ ही 250 साल से अधिक उम्र का शाहजहानाबाद शाम के धुंधलके में खो गया और नए दिन की शुरुआत के साथ ही नई दिल्ली ने अंगड़ाई ली। यह एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर के तसव्वुर की दिल्ली थी जो 1930 में बन कर तैयार हुई।
1857 में गदर की नाकामी के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह बरबाद कर दिया। लगभग 30 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जो इस कत्लेआम से बचे रहे वे शहर छोड़ कर चले गए। चांदनी चैक और उसके आसपास अंग्रेज सिपाहियों और एजेंटों की लूट महीनों जारी रही। इलाके में कुछेक इमारतों को छोड़ बाकी सब को जमींदोज कर दिया गया। लाल किला, जामा मस्जिद और फतेहपुरी मस्जिद के अंदर अंग्रेज सिपाही तैनात कर दिए गए।
शहर के बाशिंदों को उनकी जायदाद 1859 के आखिर में लौटाई गई। दिल्ली फिर से आबाद होने लगी। लेकिन दो साल पहले गलियों में बहे खून और चैराहों पर लटकाई गई लाशों की बदबू उसके जेहन में बसी रही। जलाए गए मकानों पर से कालिख अभी उतरी नहीं थी। अगले 54 बरसों तक शाहजहां के शहर में जिंदगी चलती तो रही मगर सहमी - सहमी सी।
एडवर्ड सप्तम की मई 1910 में हुई मौत के बाद जार्ज पंचम ब्रिटेन का शहंशाह बना। उसका राज्याभिषेक 22 जून 1911 को किया गया। उसी साल दिसंबर में उसने दिल्ली का दौरा किया। वह हिंदुस्तान आने वाला ब्रिटेन का पहला शहंशाह था। इस दौरान राजाओं और नवाबों की भीड़ के सामने उसे हिंदुस्तान के सम्राट और उसकी पत्नी मैरी को साम्राज्ञी के तौर पर पेश किया गया।
जार्ज पंचम की ताजपोशी के कई दिन पहले से ही दिल्ली की फिजा बदलने लगी। हवेलियों के मेहमानखाने आबाद हो गए। हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों के अलावा विदेशों से भी लोग आने लगे। जिस इलाके को अब किंग्सवे कैम्प के नाम से जाना जाता है वहां राजाओं और नवाबों के लिए तंबू लगाए गए। सड़कों को धोकर उन पर तेल छिड़का गया ताकि धूल नहीं उड़े। बग्घियों और मोटरकारों की आमदरफ्त बढ़ गई। शहंशाह की सवारी को जिन रास्तों से होकर गुजरना था उनके दोनों किनारों पर तमाशबीनों के लिए लकड़ी के पटरों से स्टैंड बनाए गए।
कामगार, बढ़ई, भिश्ती, हलवाई, नाई और दुकानदार अपनी आमदनी बढ़ जाने से खुश थे। जिन लोगों ने 1857 की तबाही को देखा था उनके दिलों में अंग्रेजों के लिए नफरत और चेहरे पर गम की छाया और गहरी हो गई थी। शहंशाह के दिल्ली पहुंचने से दो दिन पहले आगजनी की कुछ वारदात भी हुई। लेकिन जार्ज पंचम की ताजपोशी को लेकर हर किसी के मन में कौतूहल था।
7 जनवरी को रात का आखिरी पहर गुजरने से पहले ही समूची दिल्ली आंखें मलती हुई सड़कों के किनारे जमा थी। कुहासे की चादर ओढ़े मरियल से सूरज का जैसे ही दीदार हुआ एक के बाद एक गोले दागती तोपों ने कोहराम मचा दिया। भीड़ को काबू में रखने के लिए हजारों की तादाद में तैनात अंग्रेज सिपाही मुस्तैद हो गए। शहंशाह का काफिला चींटियों की एक लंबी कतार की शक्ल में लाल किले से निकल पड़ा।
जार्ज पंचम का रंगबिरंगा काफिला लाल किले से जामा मस्जिद, परेड ग्राउंड, चांदनी चैक और फतेहपुरी से होता हुआ सिविल लाइंस पहुंचा। शहंशाह को घुड़सवार सिपाहियों ने चारों तरफ से घेर रखा था। उनके पीछे दरबारियों और अंग्रेज अफसरों की टोली थी। सबसे पीछे थीं उन राजाओं और नवाबों की बग्घियां जिन्होंने अपनी शानोशौकत को बचाए रखने के लिए अंग्रेजों की सरपरस्ती कबूल कर ली थी।
इसके तीन दिन बाद जार्ज पंचम का दरबार लगा। दूर तक फैले इस मैदान में तिल रखने तक की जगह नहीं थी। अंग्रेजों की ताकत की इस नंगी नुमाइश को कामयाब बनाने में उनके हिन्दुस्तानी वफादारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। हर कोई शाही धुन पर थिरकने को तैयार था। शहंशाह के सिर पर हिन्दुस्तान का ताज रखे जाने के बाद काफी देर तक समूचे माहौल में तालियां गूंजती रहीं। सहमे हुए परिंदों ने पंख फड़फड़ाए और अपनी चीखों से आसमान को सिर पर उठा लिया।
लेकिन आज शहंशाह की मिजाजपुर्सी करने वाला कोई नहीं है। वह बबूल के जंगल और दलदल के एक किनारे पर चुपचाप खड़ा है। उसके चारों तरफ झाड़ियां उग आई हैं। संगमरमर का उसका बदन धूल और चिड़ियों की बीट से नहाया हुआ है। लंबे शाही चोगे पर दरारों की गहराई गुजरते वक्त के साथ बढ़ती जा रही है। सामने पसरे मैदान में उसकी मौजूदगी से बेपरवाह आसपास के मुहल्लों के बच्चे खेला करते हैं।
मैदान के बीच में बना 170 वर्ग फुट का संगमरमर का चबूतरा जार्ज पंचम के दरबार की यादगार है। उस पर पहुंचने के लिए 31 सीढ़ियां चढ़नी होती है। चबूतरे पर संगमरमर की ही 50 फुट की एक लाट है। लाट के पांच हिस्से हैं जिनमें से सबसे नीचे वाले में उस दिन के वाकये के अंग्रेजी में दर्ज किया गया है।
मैदान के एक हिस्से को घेर कर उसे पार्क की शक्ल दे दिया गया है। पार्क के बीच में लाल बलुआ पत्थर के स्तंभ पर जार्ज पंचम की आसमान को छूती मूर्ति है। संगमरमर की यह मूर्ति पहले राजपथ पर इंडिया गेट के नजदीक हुआ करती थी। लेकिन आजादी के बाद इसे वहां से उखाड़ कर इस बियाबान के सुपुर्द कर दिया गया।
इस मूर्ति के पीछे आधे घेरे में कुल 16 स्तंभ बने हुए हैं। पार्क के बाहर भी मैदान में कुछ स्तंभ हैं। इन सब पर शाही दरबारियों, वायसरायों और अंग्रेज अफसरों के बुत हुआ करते थे। इन्हें दिल्ली के अलग - अलग हिस्सों से लाकर इस पार्क में लगाया गया था। इन मूर्तियों में से आधों का तो अब नामोनिशान तक नहीं है और बाकी भी अपनी आखिरी सांसे गिन रही हैं। उनके लिबासों से लताएं झूलती हैं और सिर और समूचे जिस्म पर इधर - उधर घास उग आई है। शहंशाह के दाहिनी ओर अलग से एक स्तंभ भी है।
जमाना बदलते ही दस्तूर भी बदल जाते हैं। अंग्रेजों ने दिल्ली से मुगलों का नामोनिशान मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो अपनी जान बचा पाए उनमें से कितने ही शहजादे भीख मांगने और शहजादियां जिस्म बेचने तक को मजबूर हो गईं। जब जार्ज पंचम की सवारी निकली उस वक्त आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का अपंग बेटा मिर्जा नसीरुल मुल्क गली चूड़ीवालान में अपने जिस्म को हथेलियों के बल घसीटता चला जा रहा था। उस रोज सबकी नजरों का नूर बने अंग्रेज शहंशाह को क्या पता था कि एक दिन उसका वजूद एक वीरान चहारदीवारी में कैद होकर रह जाएगा।

Sunday, May 24, 2009

एक पुरानी कहानी

निवल देई से मेरी मुलाकात एक दिन अचानक ही हो गई। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में एक छोटा सा कस्बा है परीक्षितगढ़। कहते हैं कि यह अर्जुन के पोते परीक्षित की राजधानी हुआ करता था। इस कस्बे में कई ऐसी जगहें हैं जिनका संबंध महाभारत काल से जोड़ा जाता है। ऐसी ही एक जगह है निवल देई का कुआं जिसकी मुंडेर पर बैठ कर मैंने एक गड़ेरिए से नाग जाति की इस राजकुमारी की दिलचस्प कहानी सुनी।
उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के एक बड़े हिस्से में लगभग 300 साल से प्रचलित इस लोककथा को आपके सामने रखने की एक खास वजह है। समाज में दलितों की स्थिति और उनके प्रति सवर्णों की धारणा के बारे में तो हम सब जानते हैं। लेकिन इस कहानी से यह भी पता चलता है कि उस जमाने में सवर्णों के बारे में दलित क्या सोचते थे। वास्तव में जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव और दमन के खिलाफ एक खूबसूरत, खुद्दार और बुद्धिमान औरत की आवाज है निवल देई की कहानी।
- पार्थिव कुमार

एक थी निवल देई

पैरों की आहट तहखाने तक आकर ठहर गयी। दरवाजा खुला और ताजा हवा का एक झोंका राजकुमारी को छूकर गुजर गया। राजकुमारी का समूचा बदन सिहर उठा जैसे अनजाने में किसी मर्द से छू गया हो। उसने गहरी सांस लेकर आजादी के उस एक पल को अपने अंदर समेट लिया।
राजकुमारी ने नजरें उठा कर दरवाजे की ओर देखा। सामने महामंत्री शंखचूड़ खड़े थे। उनके चेहरे पर बेबसी और उदासी साफ दिखाई दे रही थी। सिर पर बिखरे बाल और आंखों के नीचे स्याही। कपड़े भी बेतरतीब थे। लग रहा था कि अरसे से सोये नहीं हैं। उन्होंने राजकुमारी से कुछ कहना चाहा मगर अलफाज जुबान पर ही रुक गये। राजकुमारी ने भी कुछ नहीं कहा। बस हाथ से आसन की ओर इशारा कर दिया। महामंत्री बुझे कदमों से आकर उस पर बैठ गये। राजकुमारी उनके सामने चुपचाप अपने पलंग के मुहाने पर बैठी रही। दोनों के बीच काफी समय तक खामोशी पसरी रही। लेकिन सिर झुकाये महामंत्री के हावभाव से साफ हो चुका था कि वह कोई बहुत बुरी खबर लेकर आये हैं।
आखिर में शंखचूड़ ने आसन पर पहलू बदलते हुए चुप्पी तोड़ी, ‘‘राजकुमारी निवल देई, हम सब बड़ी मुसीबत में हैं। आपके पिता, पाताल के राजा वासुकी को हमारी बदकिस्मती से कोढ़ हो गया है। उनका सुनहरा जिस्म दिनोंदिन पिघलता जा रहा है। चेहरा इस कदर बिगड़ चुका है कि आप देख कर शायद उन्हें पहचान भी नहीं सकें।’’
राजकुमारी ने महामंत्री के चेहरे पर एक बार निगाहें डालीं मगर बोली कुछ नहीं। शंखचूड़ ने अपनी बात आगे बढ़ायी, ‘‘समूचे पाताल में हाहाकार मचा हुआ है। राजा ने खुद को राजकाज से पूरी तरह अलग कर लिया है। एक अंधेरी कोठरी में पड़े रहते हैं। कच्ची मिट्टी के बरतन में खाते हैं। लोगों से मिलना जुलना बंद कर चुके हैं। कुछ पूछो तो जवाब तक नहीं देते। आपकी मां, रानी पद्मा ने राजा के इलाज का उपाय सुझाने के लिए आज रात ही समूचे कुटुंब को बुलाया है। राज पुरोहित संजी भी दरबार में मौजूद होंगे। रानी चाहती हैं कि वहां आप भी हों। उनके हुक्म पर ही मैं आपको इस तहखाने से ले जाने के लिए आया हूं। मुझे उम्मीद है कि मेरी अरज को कबूल कर आप साथ चलने की मेहरबानी करेंगी।’’
राजकुमारी ने अपने उलझे हुए बालों को दोनों हाथों की अंगुलियों से पीछे की ओर संवारा। फिर पलकें बंद कर आंखों को अंगुलियों के पोरों से दबाया। उसने गालों पर हथेलियों को फेर पलंग के सिरहाने लगे आईने में अपने अक्स को देखा। दासी संदल उसके नजदीक आकर खड़ी हो गयी। राजकुमारी उसके कंधे का सहारा लेकर उठी और महामंत्री के साथ जाने के लिए तैयार हो गयी। राजमहल के सांप की तरह बलखाते गलियारों से गुजरते हुए दोनों दरबार की ओर चल पडे। पूरे बारह साल बाद राजकुमारी ने तहखाने के बाहर कदम रखा था। झरोखों से छन कर आती चांदनी में उसकी देह हीरे की तरह दमक उठी। फलक पर टिमटिमाते तारों ने इस नूर के दीदार के लिए ताकाझांकी शुरू कर दी।
दरबार में घुसते ही राजकुमारी ठिठक गयी। चारों तरफ नीम अंधेरा छाया था। चिरागों की लौ बुझती हुई सी जान पड़ती थी। सन्नाटे के बीच सबके सिर झुके हुए थे। राजकुमारी के ठीक सामने तख्त पर राजा वासुकी बैठे थे। तन पर सिर्फ एक सफेद धोती थी। सिर पर ताज तक नहीं था। उनके बगल में बैठी रानी भी गुमसुम थीं। राजा के दाहिनी ओर उनके भाई जीवन, बेटे सूतक और पातक और भतीजे हरियल और परियल कतार में बैठे थे। इन सब के सामने की कतार में सेनापति जादो के अलावा काले और भूरे समेत नाग समाज की कई मशहूर हस्तियां थीं।
दरबार के बीचोंबीच खड़े राजपुरोहित ने सबकी ओर एक साथ मुखातिब होकर कहा, ‘‘साहिबान, हम पर जो कहर टूटा है उससे निजात के लिए मैंने वैद्यों, हकीमों और ज्योतिषियों से बातचीत की। पीरों और फकीरों से भी मिला और तमाम ग्रंथ चाट डाले। मैं आखिर में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारे राजा के रोग का अकेला इलाज धरती के मालिक परीक्षित के महल के नजदीक बने एक खास कुएं का पानी है। अगर हममें से कोई किसी तरह उस कुएं का पानी ला सके तो हमारे राजा उससे नहा कर फिर से पूरी तरह तंदुरुस्त हो सकते हैं।’’
दरबार में मौजूद सभी लोगों पर अचानक जैसे बिजली गिर पड़ी। राजा और रानी भी चैंक उठे। यह कैसा उपाय सुझाया संजी ने जिस पर अमल करना कतई मुमकिन नहीं है। सब एकदूसरे की ओर देख रहे थे। समूचा दरबार मधुमक्खियों के भिनभिनाने जैसी आवाजों में डूब गया। जादो ने कहा, ‘‘राजपुरोहित, आप जानते हैं कि यह काम कितना मुश्किल है। परीक्षित हमारे राजा के खून का प्यासा है। वह अपने साथ बरसों पहले हुए धोखे को अब तक भूल नहीं पाया है। वह भला क्यों हमें अपने कुएं से पानी लेने देगा? वह तो हमारे राजा का बुरा ही चाहेगा ताकि समूचे पाताल को अपने कब्जे में ले सके। हम धरती पर जाकर जंग में उसे हरा पाएं ऐसी भी हमारी हैसियत नहीं है।’’
जीवन ने भी बेबसी जतायी, ‘‘हममें से कोई अकेला जाकर चुपके से कुएं से पानी भर लाये यह भी नामुमकिन है। धरती के लोगों की नजरों में हम अछूत हैं। हमारी छाया तक से बचते हैं वे। हम अगर किसी धरती वाले से गलती से भी छू जाएं तो वह जिस्म पर मिट्टी मल कर घंटों गंगा में डुबकी लगाता रहता है।’’
‘‘संजी महाराज, हमारी कितनी ही औरतों को चोरी छिपे अपने जंगल से जलावन इकट्ठा करने जैसे छोटे से गुनाह की सजा के तौर पर धरती वाले नंगा करके अपनी गलियों में घुमा चुके हैं।‘‘ सूतक और पातक ने भी अपने चाचा की संगत करते हुए कहा, ‘‘गलती से उनका रास्ता काट बैठे हमारे कितने ही बुजुर्गों और बच्चों के सिर उनके धडों़ से कलम कर दिये गये हैं। आपको क्या लगता है कि वे अपने कुएं से हमें पानी लेने देंगे? राजा को ठीक करने के लिए हमें किसी और उपाय पर विचार करना चाहिए।’’दरबार में कानाफूसियां अब बहस में तब्दील हो चुकी थीं। धरती के कुएं से पानी लाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मगर हर कोई अपने विचार रखने की जल्दी में था। राजकुमारी इन सब से दूर कहीं और खोयी थी। लेकिन धरती के राजा का जिक्र आते ही वह चैंक गयी। राजा परीक्षित की वजह से ही तो उसे अपना समूचा बचपन एक बंद कमरे में गुजारना पड़ा था। उसे बगीचे में फूलों के बीच तितलियों के पीछे भागने का मौका कभी नहीं मिला। चिड़ियों का समूहगान उसने कभी नहीं सुना। झरने के ठंडे पानी को अंजुरी में भर कर अपने चेहरे पर छपाक से मारने की उसकी ख्वाहिश भी अधूरी ही रही।
राजकुमारी को पता ही नहीं चला कि तहखाने की चैहद्दी के बीच कब बचपन की दहलीज को लांघ कर वह जवान हो गयी। राजा और रानी बेशक गाहे बेगाहे अपनी बेटी से मिलने तहखाने तक चले आते थे। मगर दासी संदल को छोड़ राजकुमारी का कोई हमराज नहीं था। उसके सपनों में कभी कोई राजकुमार नहीं आया। अलबत्ता ठुड्डी के बीच से बंटी घनी सफेद दाढ़ी वाला अधेड़ राजा परीक्षित जरूर रोज ख्वाबों में आकर उसे डराता रहा। अपनी जाति की श्रेष्ठता के दंभ में डूबा राजा परीक्षित जिसने नागों को नीचा दिखाने की अपनी जिद की वजह से राजकुमारी की जिंदगी को मौत से भी बदतर बना दिया था।
तकरीबन बारह साल पहले की बात है। राजा वासुकी जंगल में शिकार खेलने निकले और हिरणों के एक झुंड का पीछा करते हुए काफी दूर तक निकल गये। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वह अपनी सरहद को पार कर राजा परीक्षित के राज में घुस गये। उन्होंने एक हिरण को मारा और तलवार से पेट चीर कर उसका जिगर निकाल लिया। फिर टहनियों को इकट्ठा करके अलाव जलाया और खाने के लिए उस जिगर को भूनने की तैयारी करने लगे।
आग लगी तो आसमान की ओर धुएं की एक लकीर खिंच गयी। अपने महल के छज्जे पर खड़े राजा परीक्षित ने धुआं देखा और उसे पता लगा गया कि कोई शिकारी बिना इजाजत उसके जंगल में शिकार खेलने आ घुसा है। वह घोड़े पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ उस जगह पहुंचा जहां से धुआं उठ रहा था। सामने नागों के राजा को देख वह हैरान रह गया। उसके सैनिकों ने राजा वासुकी को चारों तरफ से घेर लिया। पातालराज को तब जाकर एहसास हुआ कि वह गलती से धरती पर पहुंच गये हैं।
‘‘पातालराज, तुमने अपने गंदे पैरों से हमारी धरती को नापाक कर हमें ललकारा है।‘‘ राजा परीक्षित ने अपनी म्यान से तलवार खींच ली, ‘‘अब तुम यहां से बच कर नहीं जा सकते। लड़ने और मरने के लिए तैयार हो जाओ। इस जंगल में तुम्हारे कुनबे के कितने ही लोगों की हड्डियों बिखरी पड़ी हैं और अब तुम्हारा भी यही अंजाम होगा।’’
राजा वासुकी ने बेखौफ निगाहों से परीक्षित की आंखों में झांक कर देखा। वह बोले, ‘‘धरती के मालिक, मेरा इरादा तुम्हें नाराज करने का नहीं था। मैं तो भूल से तुम्हारी हदों में आ गया हूं। लड़ने से मैं हरगिज नहीं डरता। लेकिन तुम्हारे साथ सैनिक हैं और मैं अकेला हूं। अपने सैनिकों से कहो कि पीछे हट जाएं और फिर चाहो तो मुझ से मुकाबला कर लो।’’
राजा परीक्षित ने कोई जवाब नहीं दिया। बस आंखें मींच कर सिर हिलाते हुए अपने होठों के कोनों से मुस्कराता रहा। सैनिकों ने राजा वासुकी के इर्दगिर्द घेरा कसना शुरू कर दिया। दरख्तों के तनों और पत्तियों पर कई दर्जन नंगी तलवारें कौंध गयीं। राजा वासुकी के दिल की धड़कनें तेज होने लगीं। यह घिनौनी मौकापरस्ती ही तो है धरती पर राज करने वालों का गौरव। राजा वासुकी को अपना अंत नजदीक दिखाई देने लगा।
लेकिन धरती के राजा के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। उसने कुछ देर तक सोचने का ढोंग करने के बाद कहा, ‘‘मैं एक शर्त पर तुम्हें छोड़ सकता हूं। तुम अपनी बेटी के हाथ मेरे हाथों में दे दो। मुझसे रिश्ता जोड़ कर तुम्हारा समूचा कुनबा पाक हो जाएगा। तुम्हारे सिर पर मेरा हाथ होगा और तुम निडर होकर पाताल पर राज कर सकोगे।’’
पातालराज ने राजा परीक्षित की ओर नफरत से देखा और जमीन पर थूक दिया। किस हद तक गिर सकता है यह इंसान। किसी को नीचा दिखाने के लिए एक मासूम लड़की को अपने हरम में धकेलना चाहता है। उन्होंने कहा, ‘‘परीक्षित, मैं तुम्हारी कोई भी और शर्त मानने को तैयार हूं। मगर इस शर्त को नहीं मान सकता। मेरी बेटी इस समय सिर्फ छह साल की है। उससे तुम्हारा ब्याह कैसे हो सकता है?’’
राजा परीक्षित की आंखें गुस्से से धधक उठीं। नागों के नीच कुल का, पाताल का यह राजा उसकी कैद में होने के बावजूद नाफरमानी की जुर्रत कर रहा था। तलवार के हत्थे पर उसकी पकड़ सख्त हो गयी। लेकिन फिर उसे लगा कि समझदारी से काम लेना ही सही है। वह बोला, ‘‘सोच लो। बचने का कोई और उपाय नहीं है तुम्हारे पास। मैं सोचने के लिए तुम्हें कुछ वक्त दे रहा हूं।’’
काफी देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। परीक्षित के सैनिक राजा वासुकी पर टूट पड़ने के लिए अपने मालिक के हुक्म का इंतजार कर रहे थे। धरती के राजा का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। उसके सब्र का घड़ा भरने को था। दूसरी ओर समय गुजरने के साथ ही बेटी के लिए अंधे प्रेम की जगह एक ठंडा तर्क राजा वासुकी के दिल में पैठ जमाने लगा। वह मारे गये तो उनकी रियाया का क्या होगा? उनके जिंदा रहते तो पाताल पर हमला करने की हिम्मत परीक्षित में नहीं है। लेकिन हो सकता है उनके मरने के बाद वह समूचे पाताल को ही तबाह कर दे। ऐसे में नागों को पता नहीं कैसी मुसीबतों का सामना करना पड़े। तब निवल देई भी कहां बच पाएगी परीक्षित के चंगुल से।
‘‘तो मेरी शर्त मंजूर नहीं है तुम्हें।’’ राजा परीक्षित ने अंत में कहा, ‘‘फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ। मेरे इंसाफ के बारे में तो तुमने सुन ही रखा होगा। मैं तुम्हें ठीक उसी तरह मारूंगा जैसे तुमने मेरी धरती पर आजाद घूमने वाले इस हिरण को मारा है। इसके बाद मैं तुम्हारे जिगर को निकाल कर अलाव पर भूनूंगा और उसे खाकर अपनी भूख मिटाउंगा।’’
राजा परीक्षित की कड़क आवाज से समूचा जंगल जैसे सोते से जाग गया। चिड़ियों ने डर से शोर करते हुए आसमान में चक्कर लगाना शुरू कर दिया। पेड़ों के पत्ते एक अनहोनी के अंदेशे से कांप उठे। सैनिकों ने जोर की एक हुंकार भरी और परीक्षित ने अपनी तलवार को कंधे तक उठा लिया। बचने का कोई चारा नहीं देख राजा वासुकी ने कहा, ‘‘परीक्षित, तुम्हारी शर्त मंजूर है मुझे। मैं अपनी बेटी को तुम्हारे हवाले करने को तैयार हूं।’’
‘‘ठीक है। मैं तुम्हें आजाद करता हूं। लेकिन अपने वायदे को याद रखना। इसे भूलना तुम्हारी तबाही का सबब बन सकता है।’’
राजा वासुकी पाताल लौटे तो उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। थकान से समूचा शरीर टूटा जा रहा था। अपमान और शर्म से सिर झुका हुआ था। उन्होंने घोड़े को अस्तबल में साइस को सौंपा और सीधे रानी के कमरे में चले गये। रानी पद्मा ने उन्हें देखा तो घबरा गयीं। रानी को सारी बात बताते हुए राजा वासुकी की आंखें भर आयीं। भरे गले से बोले, ‘‘पद्मा, मैं समझ नहीं पाता कि अब क्या किया जाए।’’
‘‘मेरे सरताज,’’ रानी ने कुछ देर सोच कर कहा, ‘‘आपने राजा परीक्षित को जो जबान दी है उसे पूरा करें। वायदे से मुकरने का अंजाम कभी भी अच्छा नहीं होता। पता नहीं इस वायदा खिलाफी का क्या नतीजा कल को हमें भुगतना पड़े।’’
लेकिन परीक्षित के चंगुल से आजाद होने के बाद राजा वासुकी के जेहन पर बेटी के लिए अथाह प्यार फिर हावी हो गया था। वह अपनी आंखों की पुतली को निकाल कर भला कैसे किसी और को सौंप दें। काफी उधेड़बुन के बाद आखिरकार उन्होंने फैसला कर लिया। वह निवल को राजा परीक्षित के हवाले हरगिज नहीं करेंगे चाहे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
‘‘पद्मा, मैंने फैसला कर लिया है। हम अपनी बेटी को परीक्षित के पास नहीं भेजेंगे। पाताल में आकर हमसे लड़ने का दम तो उसमें है नहीं। मैं फरमान निकाल दूंगा कि आज से नागों में से कोई भी धरती पर कदम नहीं रखेगा। बेटी को हम एक तहखाने में बंद रखेंगे ताकि बाहर किसी को उसकी भनक तक नहीं हो। परीक्षित अपने खुफियों को भेज कर उसे अगवा करना चाहे तो भी उसे कामयाबी नहीं मिलेगी।’’
इसके बाद पाताल के बेहतरीन कारीगरों को बुला कर निवल देई के लिए एक बेहद खूबसूरत तहखाना तैयार कराया गया। फर्श पर रेशम का गलीचा बिछाया गया ताकि राजकुमारी के पैरों को तकलीफ न हो। सोने के पलंग पर मखमल का बिस्तर। ऐशोआराम की हर चीज मौजूद थी उस तहखाने में। राजकुमारी को दासी संदल के साथ तहखाने में भेज उसका दरवाजा बंद कर दिया गया।
राजकुमारी ने अपने चारों तरफ नजरें दौड़ायीं। बारह साल में पहली बार उसे तहखाने के बाहर की जिंदगी से रूबरू होने का मौका मिला था। जिन गलियारों में वह लुकाछिपी खेलती थी वे इन बरसों में उसके लिए अजनबी हो चुके थे। राजमहल की दीवारों तक ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया था। अपने भाइयों तक को उसने बहुत मुश्किल से पहचाना। दरबार में मौजूद ज्यादातर चेहरे उसके लिए एकदम नये थे। अलबत्ता जिन बूढ़े महामंत्री शंखचूड़ और राजपुरोहित संजी ने उसे गोद में खिलाया था उन्हें उसने देखते ही पहचान लिया।
दरबार में बहस अब भी जारी थी। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। राजपुरोहित चुपचाप खड़े थे। शंखचूड़ का सिर भी झुका हुआ था। अपनी ताकत पर इतराने वाले वीरों जादो, जीवन , सूतक, पातक, हरियल और परियल का साहस जवाब दे चुका था। विद्वानों काले और भूरे के सिर चक्कर खा रहे थे। राजा परीक्षित के राज में जाकर कुएं से पानी भर लाने की चुनौती कबूल करने का हौसला किसी में भी नहीं था।
‘‘मैं जाउंगी, राजा परीक्षित के देश में पानी लाने के लिए।’’
अचानक राजकुमारी की आवाज सुन कर सब चैंक उठे। सब की नजरें उसकी ओर घूम गयीं। राजा वासुकी तख्त से उठने को हुए मगर गली हुई हड्डियों ने इसकी इजाजत नहीं दी। रानी पद्मा बेजार होकर बोलीं, ‘‘बेटी, ऐसा कैसे हो सकता है? राजा परीक्षित के नापाक मंसूबों का शिकार बनने से बचाने के लिए ही तो हमने तुम्हें इतने बरसों तक दुनिया से छिपाये रखा। एक बार तुम उसके जाल में फंस गयी तो वह तुम्हें लौटने नहीं देगा। हम तुम्हें उसके देश में जाने की इजाजत नहीं दे सकते।’’
महामंत्री और राजपुरोहित ने भी समझाया। चाचा और भाइयों ने भी धरती पर जाने की जिद छोड़ देने की सलाह दी। कुनबे के बाकी लोगों ने भी अपना फैसला बदलने की गुजारिश की। मां की आंखों से तो आंसुओं की धाराएं बह निकलीं। मगर राजकुमारी नहीं मानी। उसने रानी से कहा, ‘‘मैं नाग की बेटी हूं। राजा परीक्षित मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं देखूंगी कि वह मुझे पानी लेकर लौटने से कैसे रोकता है। दुआ करना मां कि मैं कामयाब होकर लौटूं।’’
तहखाने में लौटने के बाद राजकुमारी ने चंदन के उबटन से गुसल किया। नए कपड़े पहने और सोलह सिंगार कर सिर से पांव तक खुद को गहनों से सजा लिया। पैरों में चांदी की चप्पलें डालीं। माथे पर सोने की गगरी और बगल में रेशम की डोर लेकर सबसे रुखसती लेती हुई राजमहल से निकल गयी।
पत्तियों से छन कर आती धूप ने संकरी पगडंडी पर अकेली जाती राजकुमारी के बदन से खेलना शुरू कर दिया। उसके हुस्न की खुशबू से हवा तक मदहोश हो गयी। परिंदे चहकना भूल कर एकटक उसे देखते रहे। तितलियों को अपने पंख बदसूरत लगने लगे और बेईमान भौंरों ने राजकुमारी के इर्दगिर्द गश्त शुरू कर दी। आसमान में देवराज इंद्र का मन भी डोल गया। वह धरती पर उतर कर बेनजीर खूबसूरती की इस मलिका के सामने खड़े हो गये। बोले, ‘‘सुंदरी, तुम कौन हो जिसने मेरे मन में हलचल मचा दी है? मेरे दिल में कामनाएं समंदर की लहरों की तरह उफन रही हैं। सिर्फ एक बार घूंघट उठा कर अपना रूप दिखा दो। तुम्हारी सुंदरता को पीकर ही मेरी प्यास बुझ सकेगी।’’
राजकुमारी ने जवाब दिया, ‘‘मैं हूं निवल देई। राजा वासुकी की बेटी और कश्यप की पोती। मेरे पिता के सौतेले भाई हो तुम। इस रिश्ते से मैं तुम्हारी भी बेटी हुई। मगर मैं जानती हूं कि हम छोटे लोगों के कायदे कानून देवताओं पर लागू नहीं होते। तुम्हारा दिल इजाजत देता हो तो बेशक खुद मेरा घूंघट उठा दो।’’
देवराज झेंप गये। कुछ कहते नहीं बना। राजकुमारी के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और चुपचाप देवलोक की ओर रवाना हो गये। राजकुमारी अभी कुछ ही दूर और चली थी कि सूरज और चांद ने उसका रास्ता रोक लिया। दोनों ने कहा, ‘‘बुरा नहीं मानना। हम देखना चाहते हैं कि आखिर किसके सामने हमारी चमक भी फीकी पड़ गयी है। किसकी वजह से हमें अपने दमकते चेहरे मुरझाये से लगने लगे हैं। सिर्फ एक बार जी भर के तुम्हारा दीदार कर लें तो अपने रास्ते चले जाएंगे हम।’’
‘‘मैं तुम्हें रोक नहीं रही।’’ राजकुमारी ने कहा, ‘‘मगर इतना तो जान लो कि मैं कौन हूं। मैं राजा वासुकी की बेटी और कश्यप की पोती हूं। तुम दोनों की बेटी लगती हूं मैं। मगर शायद सप्तऋषियों की संतानों का तप अपनी बेटी के उघड़े हुए मुखड़े को देखे बिना पूरा नहीं होता। तुम चाहो तो घूंघट उठा कर मेरा चेहरा देख लो।’’
सूरज और चांद की नजरें शर्म से झुक गयीं। दोनों चुपचाप वहां से खिसक लिये। राजकुमारी ने अपना सफर जारी रखा। लेकिन सामने एक हिरण उसका रास्ता रोके बेचैन आंखों से उसकी ओर देख रहा था। उसके लबों पर एक अनबुझ प्यास थी। लगता था जैसे इस एक पल का वह जिंदगी भर इंतजार करता रहा है। उसने अपनी बौराई सांसों को संभाल कर लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा, ‘‘निवल, मेरी आंखें सदियों से तुम्हें ही ढूंढ रही हैं। मैं तुमसे कुछ भी और नहीं चाहता। बस, मुझे अपने दिल में थोड़ी सी जगह दे दो।’’
राजकुमारी उसकी चालाकी पर मन ही मन मुस्करायी। जिसे पाने के लिए देवताओं और राजाओं से लेकर ऋषि मुनियों तक में होड़ लगी हो, मोहब्बत का ढोंग कर उसके दिल में अपने लिए जगह बनाना चाहता है यह पाखंडी। लेकिन उसे नहीं पता कि यह अंधी हसरत उसकी जान भी ले सकती है। राजा परीक्षित को उसके दुस्साहस का पता लग गया तो एक अदने से हिरण की जान लेने में उसे कितना वक्त लगेगा?
निवल देई ने हिरण से कहा, ‘‘सुन, मेरे आशिक, तेरी दीवानगी ने मुझे पिघला दिया है। अगर मैं किसी की हुई तो वह तू ही होगा। मेरा इंतजार करना। लेकिन मैं जिस काम के लिए निकली हूं उसे पूरा किए बिना तुम्हारे पास नहीं लौट सकती। यह भी मुमकिन है कि यह काम कभी पूरा नहीं हो। इसलिए लौट नहीं सकी तो अफसोस मत करना।’’
राजकुमारी आगे चल दी। हिरण आंखों से ओझल हो जाने तक चुपचाप उसे देखता रहा। सात दिन और इतनी ही रातों तक लगातार चलने के बाद राजकुमारी कुएं तक पहुंच गयी। उसने मुंडेर पर घड़ा रखा तो हल्की सी आवाज हुई और पहरेदार गिद्धों की आंखें खुल गयीं। उनमें से एक ने राजा परीक्षित के पास जाकर उसे बता दिया कि कोई नागन पानी भरने उसके कुएं पर आयी है। राजा ने फौरन अपनी तलवार संभाली और घोड़े पर सवार होकर कुएं तक जा पहुंचा।
घोड़े से उतरते हुए राजा परीक्षित ने रौबदार आवाज में पूछा, ‘‘कौन है तू जो मेरे कुएं से मेरी इजाजत के बिना पानी लेने की गुस्ताखी कर रही है? जल्दी बता नहीं तो तेरा सिर कलम कर दिया जाएगा।’’
‘‘मैं निवल देई हूं। राजा वासुकी की बेटी।’’
एक पल के लिए तो राजा परीक्षित को यकीन नहीं आया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि निवल देई से कभी इस तरह मुलाकात होगी। उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया था। उसने अपनी बांह पर चिकोटी काट खुद में जगे होने का भरोसा जगाया और फिर अपनेआप को संभालते हुए राजकुमारी से पूछा, ‘‘क्यों आयी हो यहां?’’
‘‘अपने पिता के इलाज के लिए इस कुएं से पानी लेने के वास्ते।’’
‘‘क्या तुम्हें पता नहीं कि इस कुएं से अछूतों का पानी लेना मना है? तुम्हें क्या लगता है कि वासुकी ने मेरे साथ जो फरेब किया उसके बावजूद मैं तुम्हें इस कुएं से पानी लेने दूंगा?’’
‘‘मुझे पता है कि तुम मेरी जान भी ले सकते हो। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है। मैं अपने पिता के इलाज के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं।’’
‘‘अच्छा, तो तुम कुछ भी करने को तैयार हो,’’ राजा परीक्षित ने गहरी सांस ली। उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गयी, ‘‘फिर ठीक है। तुम वासुकी का दिया वचन पूरा करके मुझसे ब्याह कर लो। इसके बाद मैं तुम्हें अपने कुएं से पानी लेने की इजाजत दे दूंगा।’’
राजकुमारी चैंकी नहीं। ठहरी हुई आवाज में राजा परीक्षित से बोली, ‘‘ठीक है। मैं तुम से शादी करने के लिए तैयार हूं। लेकिन एक बात बताओ मुझे। मेरे मटकी भर पानी निकाल लेने से तुम्हारा कुआं अपवित्र हो जाता है। फिर एक नागन को अपने बदन से लपेट कर सोने से तुम्हारी देह को छूत नहीं लगेगा?’’
राजा परीक्षित से कोई जवाब देते नहीं बना। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया। एक नागन की इतनी हिम्मत कि धरती के राजा से सवाल पूछे? इस गुस्ताख लड़की को सबक सिखाना ही होगा। वह एक कदम आगे बढ़ा और तलवार की नोंक से उसने राजकुमारी का घूंघट उठा दिया।
अचानक आसमान पर बिजली कौंधी। राजा परीक्षित पीछे हट गया। कैसी कटार जैसी तीखी नजरें हैं इस लड़की की। होंठ जैसे शराब के प्याले हों। गालों पर गुलाब खिले हैं। रूप ऐसा कि फरिश्तों तक का ईमान डोल जाए। इस अप्सरा ने पाताल के राजा के महल में कैसे जन्म ले लिया? इसे तो देवलोक में होना चाहिए था।
राजकुमारी के चेहरे पर राजा परीक्षित के गुस्से के लिए उपहास का भाव साफ झलक रहा था। अधेड़ राजा की सांसों में एक ख्वाहिश बरसों बाद धधकने लगी। समूचे बदन में सनसनी फैल गयी। चेहरा लाल हो उठा। पैर अरमानों का बोझ नहीं उठा सके और वह कुएं की मुंडेर पर ही धम से बैठ गया। पल भर पहले आवाज में जो खनक थी उसकी जगह लाचारी ने ले ली। उसने लगभग बुदबुदाते हुए कहा, ‘‘निवल, मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूं। मेरी चाहत को ठुकरा कर मत जाओ।’’
‘‘तुमसे शादी के लिए मैं पहले ही हामी भर चुकी हूं।’’ राजकुमारी बोली, ‘‘मैं अपने पिता का दिया वचन जरूर पूरा करूंगी। मगर शर्त यह है कि पहले मैं इस कुएं से पानी लेकर पाताल जाउंगी। शादी मेरे पिता के ठीक होने के बाद ही होगी।’’
‘‘कैसे भरोसा कर लूं तुम्हारी बातों का? वासुकी तो वचन देकर मुकर गया था। मैं कैसे मान लूं कि तुम अपना वायदा पूरा करोगी?’’
‘‘फिर तो तुम्हारे पास एक ही उपाय है। अपनी तलवार पर बहुत नाज है तुम्हें। तुम चाहो तो इसके जोर पर मुझे जबरन उठा कर अपने महल में कैद कर सकते हो। तुम्हारे पूर्वज ऐसा करते रहे हैं और इससे तुम्हारी मूंछों की शान भी बढ़ेगी।’’
राजा परीक्षित एकबारगी चैंक गया। शिकार खुद शिकारी के जाल में क्यों फंसना चाहता है? निवल ने जैसा कहा शायद उसे वैसा ही करना चाहिए। लेकिन कुछ सोचने के बाद उसने इस खयाल को अपने मन से निकाल दिया। जोर जबरदस्ती से तन को जीता जा सकता है, मन को नहीं। बूढ़े राजा की कैद में जवानी अफवाहों की वजह बनेगी। लेकिन पहलू में खड़ी हो तो राजा की मर्दानगी का सिक्का जमेगा। उसे तो निवल पूरी चाहिए तन और मन दोनों के साथ ताकि समूची धरती की जुबान पर राजा परीक्षित की जवांमर्दी का फसाना हो।
उसने राजकुमारी से कहा, ‘‘मैं तुम पर यकीन करता हूं। इजाजत है तुम्हें इस कुएं से पानी भर कर जाने की। पखवाड़े भर बाद मैं इसी कुएं पर तुम्हारा इंतजार करूंगा। लेकिन अगर तुम नहीं लौटीं तो धरती का कहर पाताल पर टूटने से कोई भी नहीं रोक सकेगा।’’
राजकुमारी फौरन पानी लेकर पाताल के लिए चल पड़ी। वहां हर किसी को उसका ही इंतजार था। राजमहल के दरवाजे तक पहुंचते ही उस पर फूल बरसाए गये। औरतों ने उसकी तारीफ में कसीदे गाये। धरती से लाये गये पानी से नहाते ही राजा वासुकी का कोढ़ पूरी तरह से ठीक हो गया। उनका सुनहरा बदन फिर से दमकने लगा। राजमहल में खुशी की लहर दौड़ गयी। समूचे पाताल में जश्न का माहौल था। हर किसी की जुबान पर राजकुमारी की बहादुरी और सूझबूझ की ही चर्चा थी।
लेकिन राजकुमारी का अपने लोगों से जुदा होने का वक्त आ गया था। उसने राजा वासुकी से अकेले में कहा, ‘‘मुझे लगता है कि राजा परीक्षित को दिया वचन पूरा नहीं करने से ही आप पर यह विपदा आयी। मैं नहीं चाहती कि पाताल के लोगों पर और कोई मुसीबत आये। वैसे भी राजा परीक्षित को मैं मन से अपना पति मान चुकी हूं। मुझे अब उसके पास लौटना होगा इसलिए मैं आपसे इजाजत मांगने आयी हूं।’’
अपनों से बिछड़ते समय राजकुमारी अपनी मां से लिपट कर खूब रोयी। राजा वासुकी चुपचाप खड़े थे। कुछ बोलना चाहा मगर आवाज गले में ही ठहर गयी। राजकुमारी के दोनों भाइयों, कुटुंब के बाकी लोगों और दरबारियों की आंखें भी भर आयीं। उस रात समूचे पाताल में अंधेरा छाया रहा और किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला।
राजकुमारी कुएं पर पहुंची तो राजा परीक्षित अकेला उसका इंतजार कर रहा था। परीक्षित ने लकड़ियां इकट्ठा कर वहीं आग जलायी और दोनों ने उसके सात फेरे लिये। राजा परीक्षित उसकी ओर देख कर मुस्करा दिया। उसने अपने खजाने में एक अनमोल नगीना जोड़ लिया है। कहारों को बुलावा भेज दिया है। हरकारे भेज कर राजधानी को जगमग करने का आदेश दे दिया है। आज समूची धरती पर जश्न होगा। हर कोई देखेगा कि पाताल की रोशनी अब किस तरह धरती के राजा के महल को रोशन करती है।
राजा परीक्षित कुएं की मुंडेर पर आकर बैठ गया। राजकुमारी चुपचाप उसके सामने खड़ी रही। राजा की छाती गर्व से तनी थी। उसके चेहरे पर अहंकार का भाव था। उसने कहा, ‘‘निवल, समूचे पाताल को जीत कर भी मुझे वह दौलत नहीं मिलती जो मैंने तुम्हें पाकर हासिल कर ली है।’’
राजकुमारी ने जैसे उसकी आवाज सुनी ही नहीं। वह बिना कोई जवाब दिये दूर क्षितिज की ओर देखती रही जहां आसमान और जमीन के एक होने का भ्रम होता है। शाम होने को थी। ढलते सूरज की सिंदूरी रोशनी में राजकुमारी की आंखों की पुतलियां चमक उठीं। आखिरी परवाज से पहले चिड़िया अपने पंखों को तोल रही थी। एक कठोर संकल्प ने उसके चेहरे को चट्टान की तरह सख्त बना दिया था।
‘‘धरती के मालिक, अपने पिता का दिया वचन मैंने पूरा कर दिया है।’’ राजकुमारी ने राजा परीक्षित की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘मेरे और तुम्हारे बीच इससे ज्यादा कुछ नहीं था। हम दोनों का मेल नहीं हो सकता। नीचे उतर कर हमारे बराबर आने से तुम्हारी शान घटेगी। और किसी के पैरों की पूजा करना अब पातालवालों की फितरत नहीं रही।’’
राजा परीक्षित कुछ सोच पाता इससे पहले ही राजकुमारी कुएं के घेरे पर चढ़ चुकी थी। अचानक धरती की कोख से एक घनी सी आवाज बवंडर की तरह चक्कर काटती हुई उठी और समूचे माहौल में गूंज गयी। आसमान पर बिजली कौंधी और कुएं से उठे सैलाब ने राजा परीक्षित को सराबोर कर दिया। पश्चिम में सूरज डूब रहा था। अंधेरा छाने को था। धरती का राजा देर तक कुएं के नजदीक ही खड़ा रहा और फिर बुझे हुए कदमों से अपने महल की ओर लौट गया।

Wednesday, April 29, 2009

तीन लड़ाइयों की बरबादी दामन में समेटे है

पानीपत
पार्थिव कुमार
अबू अली शाह कलंदर के इस फक्कड़ मिजाज शहर ने जिंदगी की भागमभाग में अपने जख्मों को भुला दिया है। लड़ाई दिल्ली के तख्त और ताज की मगर हर बार सीना कुचला गया पानीपत का। तकरीबन 235 साल के दरमियान हुई तीन लड़ाइयों ने इसकी तबाही में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर दफा हजारों लाशों से इसकी धरती पट गई। लहू इतना बहा कि कहते हैं जमीन के साथ ही 11 किलोमीटर दूर जमुना का पानी भी लाल हो गया।
लेकिन अब यह सब इतिहास की किताब का हिस्सा हो चुका है। जो कभी कंटीली झाड़ियों में उलझी बंजर जमीन थी वहां अब केंचुए की तरह रेंगती संकरी गलियों में इंसानी सैलाब बहता है। जहां हिंदुस्तान पहली बार तोपों की गरज से कांप उठा था वहां हथकरघों की ठकठक दरगाह से उठती कव्वाली की लय से संगत करती है। खून की बास की वजह से जिस हवा में सांस लेना मुश्किल था उसमें अब अचार की खुशबू फैली है।
हैंडलूम और अचार पानीपत की नई पहचान हैं। जिधर देखो - काते, धोए, रंगे, सुखाए और बैलगाड़ियों से लेकर ट्रकों तक पर ढोए जाते कपड़े दिखाई देते हैं। सड़कों के किनारे अचार की अनगिनत दुकानें हर आने जाने वाले को दावत देती हैं। मगर इन सब के बीच बीते समय को हमेशा के लिए दफन कर देना इतना आसान नहीं है। अतीत के अब भी जिंदा जो कुछेक टुकड़े इस शहर को पुराने दिनों से जोड़े हुए हैं उनमें बाबरी मस्जिद एक है।
काबुली बाग इलाके में बनी यह खूबसूरत मस्जिद हिंदुस्तान में मुगलों के जमाने की पहली इमारत है। इसे बाबर ने 1529 में उस जगह बनवाया था जहां उसने इब्राहीम लोधी को हराने के बाद शुकराने की नमाज पढ़ी थी। इस अनूठी मस्जिद में नक्काशी का काम बहुत कम और दरवाजे तक ही सिमटा हुआ है।
बाबरी मस्जिद के बीच के हिस्से की छत पर एक बड़ा गुंबद है। इसके दोनों तरफ 18 छोटे गुंबद हुआ करते थे जिनमें से अब नौ ही बचे हैं। मस्जिद का दक्षिण का आधा हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका है। हुमायूं ने शेर शाह सूरी के वंशज इस्लाम शाह पर जीत के बाद इसके सामने एक चबूतरा बनवाया था जिसका अब नामोनिशान तक नहीं है।
इस मस्जिद की दो खासियतें इसे मुगलों के समय की बाकी ज्यादातर इमारतों से अलग करती हैं। एक तो इसे पतली लाखौरी ईंटों से बनाया गया है जबकि दिल्ली की ज्यादातर मुगलकालीन मस्जिदें सैंडस्टोन की हैं। दूसरे, इस पर कोई मीनार नहीं है। आकार में बड़ी और सादगी से भरी यह मस्जिद शुरुआती मुगल स्थापत्य का नायाब नमूना है।
बाबर ने धनदौलत से लबरेज हिंदुस्तान पर राज करने के सपने देखना 1505 से ही शुरू कर दिया था। उसने 1519 और 1520 में इस पर तीन नाकाम हमले किए। इसके तीन साल बाद लाहौर के सूबेदार दौलत खान की इब्राहीम लोधी के साथ गद्दारी ने बाबर का काम आसान बना दिया। फिर भी 1524 में किए अपने चैथे हमले में उसे इस देश को जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी। नवंबर 1525 में तोपखाने से लैस बाबर ने पूरी तैयारी के साथ काबुल से हिंदुस्तान के लिए कूच किया। उसने 15 दिसंबर को सिंधु नदी पार की और फिर झेलम को लांघते हुए लाहौर तक पहुंच गया। जिस दौलत खान ने कभी उसे हिंदुस्तान पर हमला करने का न्यौता दिया था वह अब लाहौर में अपने 40 हजार सिपाहियों के साथ उससे लोहा लेने को तैयार था। मगर बाबर की सेना को सामने देखते ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई और वह भाग खड़ा हुआ। इसके बाद बाबर रोपड़ में सतलुज को पार करते हुए अंबाला पहुंचा और इस दौरान उसकी राह में कोई अड़चन नहीं आई।
एक अप्रैल 1526 को बाबर की सेना पानीपत पहुंच चुकी थी। इब्राहीम लोधी की एक लाख सिपाहियों और 100 हाथियों की फौज के सामने उसके पास कुल जमा 12 हजार सैनिक थे। लेकिन मैदाने जंग में ही पल कर बड़ा हुआ बाबर लड़ाई के पेंचों को बखूबी समझता था और उसने अपनी एक चाल में ही दिल्ली के सुलतान को फांस लिया। उसने नौ अप्रैल को अपने मुट्ठी भर घुड़सवारों को दुश्मन सेना से लड़ने के लिए भेज दिया जो कुछ देर मुकाबला करने के बाद भाग खड़े हुए। इससे इब्राहीम लोधी को लगा कि दुश्मनों को आसानी से हराया जा सकता है और उसने हमला करने का मन बना लिया। अगले 11 दिन दोनों ही खेमे एकदूसरे की ताकत को तोलते रहे और इस दौरान मामूली झड़पें ही हुईं। आखिरकार इब्राहीम लोधी की सेना ने 21 अप्रैल को सूरज उगने के साथ ही धावा बोल दिया। लेकिन बाबर ने उसे तीन तरफ से घेरने का पूरा इंतजाम कर रखा था और सिर्फ कुछेक घंटों में लगभग 30 हजार मौतों के बाद दोपहर तक लड़ाई खत्म भी हो गई। तोपों की दहाड़ से घबराए हाथियों ने इब्राहीम लोधी के सैनिकों को ही अपने पैरों तले कुचल दिया। आसमान तक छाया धूल का गुबार छंटा तो चीखें कराहों में तब्दील हो चुकी थीं और दिल्ली के सुलतान का जिस्म छह हजार लाशों के ढेर में पड़ा था। मंगोल सैनिकों ने उसके सिर को धड़ से अलग कर बाबर के सामने पेश कर दिया।
उस रोज लोधी वंश का सूरज हमेशा के लिए ढल गया। हफ्ता भर बाद दिल्ली में बाबर के नाम का खुतबा पढ़ा गया और हिंदुस्तान के तख्त पर तैमूर और चंगेज खान के खून का कब्जा हुआ जो अगले 331 साल तक कायम रहा। हिन्दुस्तान की तस्वीर और तकदीर बदल देने वाले इन ऐतिहासिक पलों का गवाह रहे पानीपत में इब्राहीम लोधी का मकबरा अब भी उन दहशतनाक दिनों की याद दिलाता है।
एक हारे हुए सुलतान का यह मामूली सा मकबरा पानी की टंकी जैसा दिखाई देता है। संगमरमर के एक टुकड़े पर फारसी में लिखे चंद हर्फ नहीं होते तो भरोसा करना मुश्किल था कि इब्राहीम लोधी इसके नीचे ही दफन है। मकबरा लाखौरी ईंटों के एक चबूतरे पर बना है जहां तक सीढ़ियां जाती हैं। यहां कोई फूल चढ़ाने या अगरबत्ती दिखाने के लिए नहीं आता। सिर पर कोई गुंबद या छत भी नहीं है। जिसके पैरों तले कभी दुनिया हुआ करती थी वह अब खुले आसमान के नीचे सोया है।
इब्राहीम लोधी की मौत के 30 साल बाद पानीपत की धरती पर एक बार फिर जंग की बिसात बिछ गई। इस बार आमने सामने थे बाबर का पोता अकबर और कभी रेवाड़ी में नमक का सौदागर रहा हेमचंद्र कलानी जिसे इतिहास हेमू के नाम से जानता है। उन दिनों समूचे हिंदुस्तान से बेदखल अकबर जालंधर में टिका था। अफगान सुलतान इब्राहीम शाह की मेहरबानी से वजीर और फिर उथलपुथल का फायदा उठा कर सम्राट बने हेमू का मन दिल्ली में विक्रमजीत का खिताब लेने से नहीं भरा और उसने अकबर का पीछा करने की ठान ली।
उस समय अकबर की उम्र सिर्फ 14 साल की थी। चैबीस लड़ाइयां लड़ चुके हेमू को लगा कि दुश्मन अनाड़ी है और 30 हजार राजपूत सैनिकों और अफगान घुड़सवारों और 500 हाथियों की उसकी सेना को देखते ही वह काबुल भाग खड़ा होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों सेनाएं पांच नवंबर 1556 को पानीपत में गुत्थमगुत्था हो गईं।
अकबर की फौज छोटी थी और हेमू जीत हासिल करने के काफी करीब पहुंच गया था। मगर अचानक आंख में तीर लगने से हेमू बेहोश हो गया और लड़ाई की तस्वीर एक पल में बदल गई। उसके सैनिक भाग खड़े हुए और उसे पकड़ कर अकबर के सामने लाया गया। अकबर के खानबाबा बैरम खान ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया और इस तरह दिल्ली पर एक बार फिर मुगलों की बादशाहत कायम हुई।
दूसरी लड़ाई की कोई भी निशानी अब पानीपत में नहीं है। लेकिन 14 जनवरी 1761 को अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई जिस जगह हुई थी वहां एक युद्ध स्मारक बना दिया गया है। यह स्मारक घने पेड़ों और रंगबिरंगे फूलों से सजे एक खूबसूरत बगीचे के अंदर है जहां इस शहर के लोग पिकनिक मनाने जाया करते हैं। कहते हैं कि लड़ाई के दौरान दोनों तरफ से तोपों ने इतना धुआं उगला कि जमीन स्याह हो गई और इसीलिए इस जगह को काली अम्ब के नाम से जाना जाता है। सदाशिव भाउ की अगुवाई में दो सौ तोपों से लैस मराठा सेना में 55 हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सैनिक शामिल थे। सामने खड़ी थी 42 हजार घुड़सवारों, 38 हजार पैदल सिपाहियों और तोपों से लदे दो हजार उंटों की विशाल फौज। पौ फटने के साथ ही शुरू हुआ खूनखराबा दिन भर चलता रहा और तोपों की गरज समूचे माहौल में गूंजती रही।
आखिर में बालाजी राव पेशवा के बेटे विश्वास राव की गोला लगने के बाद घोड़े से गिर कर हुई मौत के साथ ही मराठों का हौसला टूट गया। अपने भतीजे की मौत की खबर पाते ही गुस्से में पागल सदाशिव भाउ विरोधी सेना पर टूट पड़ा मगर अफगान घुड़सवारों ने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। इसके बाद मराठा सेना तितर बितर होने लगी और शाम ढलने के साथ ही लड़ाई भी खत्म हो चुकी थी।
उस रात पानीपत के अंधेरे बियाबान में सर्द हवाएं तूफान की रफ्तार में चल रही थीं। आसमान से लेकर जमीन तक घने कोहरे का परदा था। लाशों के ढेरों के बीच सन्नाटा चहलकदमी कर रहा था। लगता था कि यह स्याही अनंत काल तक पसरी रहेगी। लेकिन ऐसी कितनी ही रातों से गुजर चुके पानीपत को पता था कि हर रात की कोख में सवेरा पलता है। सुबह होते ही दरख्तों के पीछे से सूरज निकलेगा और जिंदगी आंखें मलते हुए फिर से अपनी राह पर चल पड़ेगी।
अबू अली की दरगाह पर सुबह चिड़ियों के जगने से भी पहले होती है। उनका जन्म 1209 में हुआ था और वह 40 साल तक पानीपत में रहे। इसके बाद वह दिल्ली जाकर कुतुब मीनार के पास एक झोंपड़े में रहने लगे जिससे थोड़ी ही दूरी पर उनके पीरोमुर्शिद ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जमातखाना था। उनके मुरीदों में सुलतान गियासुद्दीन बलबन, जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी भी शामिल थे। अबू अली का इंतकाल 1324 में 115 साल की उम्र में करनाल में हुआ जहां से उनकी देह को लाकर पानीपत में दफनाया गया।
दरगाह पर सभी मजहबों के लोगों का आना जाना दिन भर लगा रहता है। मन्नत मांगने वाले मकबरे में बनी एक जगह पर ताला लगा कर जाते हैं जिसे मुराद पूरी होने के बाद आकर खोलना होता है। अबू अली के बारे में मशहूर है कि उनके जमाने में जमुना पानीपत से गुजरती थी। वह उनकी इतनी इज्जत करती थी कि एक बार सात कदम पीछे हटने के लिए कहे जाने पर वह शहर से सात मील दूर चली गई। दरगाह के अहाते में पहुंचने के लिए एक मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। सामने संगमरमर के एक चैकोर चबूतरे पर बनी दरगाह के अंदर अबू अली का मकबरा है। इसके आसपास वजूखाना, आने वालों के ठहरने के लिए कमरे और दफ्तर बने हैं। अहाते में कुछ और कब्रें भी हैं जो शायद उनके मुरीदों और नजदीकी लोगों की होंगी।
हजारों साल पहले पांडवों ने हस्तिनापुर पर राज करने वाले अपने चचेरे भाइयों से पानीपत समेत पांच गांव मांगे थे। इस मांग को मानने से कौरवों के इनकार के बाद ही महाभारत की लड़ाई शुरू हुई थी। कुरुक्षेत्र में सत्रह दिनों तक चले इस घमासान को पानीपत ने लगभग 74 किलोमीटर दूर खड़े होकर देखा। तब से ही बरबादी की कई कहानियों को यादों में समेटे यह शहर अपने सकोरे में वक्त के सिक्कों को उछालता किसी दरवेश की तरह गाता जाता है:
फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ,नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु।
संडे नई दुनिया में 01 फरवरी 2009 को प्रकाशित

दीदारे दिल्ली 1: महरौली पुरातत्व उद्यान

इतिहास की किताब जैसा एक पार्क
पार्थिव कुमार
महरौली का पुरातत्व उद्यान शहर के शोरशराबे से थकी दिल्ली को अतीत के आंगन में सुकून के कुछ पल गुजारने की दावत देता है। इतिहास की किसी दिलचस्प किताब जैसा है यह पार्क। इसमें करीने से सजाई गई फूलों की क्यारियों, कीकर और बबूल के दरख्तों और जंगली झाड़ियों के बीच तोमरों से लेकर अंग्रेजों के जमाने तक तकरीबन 1000 बरसों की यादें बिखरी पड़ी हैं।
कुतुब मीनार के दक्षिण में अणुव्रत मार्ग पर लगभग 200 एकड़ में फैले इस पार्क में 80 से ज्यादा पुरानी इमारतों के खंडहर हैं। इनमें से सिर्फ कुछ ही के बारे में पूरी जानकारी है। बाकियों की बनावट को देख कर सिर्फ उनके निर्माण के काल के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। इन खंडहरों को उस वक्त का इंतजार है जब पुरातत्वविद् उनकी पूरी पहचान को रोशन कर सकेंगे।
जानकारों के मुताबिक इस पार्क के टीलों के नीचे पहली और दूसरी दिल्ली - लालकोट और किला राय पिथौरा के अवशेष दफन हैं। लालकोट को तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय ने 11 वीं सदी में और किला राय पिथौऱा को पृथ्वीराज चैहान ने इससे लगभग सवा सौ साल बाद बनवाया था। अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में इस इलाके में घनी आबादी थी। कुतुब के अहाते में बने अलाई दरवाजे के बाहरी हिस्से में सफेद और लाल संगमरमर से की गई नफीस नक्काशी से साबित होता है कि इस मीनार के दक्षिणी हिस्से में बसावट रही होगी।
कुतुब से 275 मीटर दक्षिण पूर्व में पार्क के एक सिरे पर कुली खान का मकबरा है। कुली खान मुगल बादशाह अकबर की दाई माहम अंगा का बेटा था। माहम अंगा के दूसरे बेटे आदम खान को अकबर के हुक्म पर आगरा के किले से गिरा कर मार डाला गया था। उसने अकबर के वजीर अतगा खान की सरेआम हत्या कर दी थी। माहम अंगा और आदम खान का मकबरा पार्क के बाहर थोड़ी ही दूरी पर बना हुआ है।
कुली खान का मकबरा आठ कोनों वाला है। इस पर मुगलों से पहले के समय की छाप साफ दिखाई पड़ती है। लोधियों के जमाने के छज्जे इसमें नहीं हैं। लेकिन गुंबद की डिजाइन मुगल इमारतों से पहले की है। इतना तो कहा ही जा सकता है इसे मुगल शैली के गुंबद वाली पहली इमारत हुमायूं के मकबरे से पहले बनाया गया होगा।
उन्नीसवीं सदी में दिल्ली के ब्रिटिश रेसिडेंट थामस मेटकाफ ने इस मकबरे को खरीद लिया। मेटकाफ को मुगलों जैसी शानोशौकत से रहने का फितूर था। वह इस मामले में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से होड़ करता था। मेटकाफ 40 साल तक दिल्ली में रहा। इस दौरान वह हमेशा कोशिश में लगा रहा कि बहादुर शाह जफर के साथ ही दिल्ली के तख्त से तैमूर के वारिसों का राज खत्म हो जाए।
महरौली में ही बने बहादुर शाह के जफर महल के जवाब में मेटकाफ ने कुली खान के मकबरे में तब्दीलियां कर उसे अपना आरामगाह बना लिया। मुगलों के राज के खात्मे का उसका सपना भी पूरा तो हुआ मगर उसकी मौत के बाद। उसकी मौत 1853 में पेट की बीमारी से हुई जिसके बारे में कहा जाता है कि बहादुर शाह की छोटी बेगम जीनत महल ने उसे जहर दिलवा दिया था।
मेटकाफ ने मकबरे के चारों तरफ बने बरामदे को कमरों में तब्दील कर दिया। बीच के हाल के अूपर उसने अपना डाइनिंग रूम बनवाया। मकबरे के सामने उसने मुगलों की खास चारबाग शैली में बाग बनवाया जिसके बीचोंबीच एक खूबसूरत चबूतरा अब भी मौजूद है। मकबरे के इर्दगिर्द के इलाके में तब्दीलियां करते समय स्थापत्य के तालमेल का खास ध्यान रखा गया। मेटकाफ ने अपने आरामगाह को ‘दिलकुशा‘ नाम दिया।
अंग्रेजों के जमाने में इस इलाके में कई बदलाव किए गए। कुतुब की ओर जाने वाले एक दरवाजे को मेहमानखाने में बदल दिया गया। इसके दक्षिण में अलाव जलाने की जगह और उत्तर में तालाब बनाया गया। मकबरे के पास बना बोट हाउस बेहद खूबसूरत है। मकबरे से पार्क की ओर जाने के लिए मेटकाफ पुल से होकर गुजरना होता है। हौज शम्सी से यमुना नदी की ओर बहने वाली नहर उस जमाने में इस पुल के नीचे से गुजरती थी।
कुली खान के मकबरे से जमाली - कमाली मस्जिद तक फैला हुआ था दिलकुशा। बीच की जगह को सजाने के लिए मेटकाफ ने नकली खंडहर और कोस मीनारें बनवाईं। मस्जिद के पास मेटकाफ की छतरी अब भी मौजूद है। दिलकुशा में घुसने के लिए मस्जिद के पास एक बडा दरवाजा था। संतरियों के घर और बग्घियों को खड़ा करने की जगह इसके नजदीक ही थी। मेटकाफ के मेहमानों को खूबसूरत बग्घी में बैठा कर इस दरवाजे से 455 मीटर दूर मेहमानखाने तक ले जाया जाता था।
1529 में बनाई गई जमाली - कमाली मस्जिद की खासियत उसकी सादगी है। पांच मेहराबदार द्वारों वाली इस आयताकार मस्जिद के बीच के खंड पर बुर्ज हैं। पांचों मेहराबों के दोनों तरफ कमल के आकार की सजावट है और बीच के मेहराब के अूपर एक सुंदर झरोखा। लाल सैंडस्टोन और संगमरमर से बनी इस मस्जिद की शैली भी लोधी और मुगलकाल के बीच की है।
मस्जिद के सामने आठ कोनों वाला हौज है। बगल में बने दो आंगनों में कई कब्रें हैं। जमाली और कमाली की कब्रें एक छोटे से चैकोर मकबरे के अंदर हैं जिसके अंदरूनी हिस्से में महीन सजावट है। कमाली के बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन जमाली के नाम से मशहूर शेख फजलुल्लाह एक यायावर और शायर था जिसने सिकंदर लोधी के दरबार में नौकरी कर ली थी। इस मकबरे की दीवारों पर उसकी कविताओं को खूबसूरती से उकेरा गया है। इसके ठीक सामने एक कब्र के अूपर छतरी है मगर बाकी सभी कब्रें खुली हैं।
जमाली - कमाली मस्जिद के ठीक सामने खंडहरों के बीच गुलाम वंश का आखिरी सुलतान बलबन दफन है। इसके नजदीक ही बलबन के बेटे खान शाहिद का मकबरा है। खान शाहिद की मौत बलबन से दो साल पहले ही लाहौर में चंगेज खान के सेनापति साभर से लड़ते हुए हुई थी। अपने आखिरी दिनों में बलबन की हालत पागलों जैसी हो गई थी और वह बेटे की मौत के गम में रात भर आंसू बहाता रहता था।
बलबन का मकबरा चैकोर और काफी बड़ा है। अब सिर्फ इसकी दीवारें ही बची हैं। वैज्ञानिक ढंग से बनाए गए इसके मेहराब पुरातत्व की नजर से बहुत अहमियत रखते हैं। उस जमाने में इस इलाके में पूरा एक शहर हुआ करता था। खंडहरों को देख कर लगता है कि इलाके में महल, मकान और बाजार भी थे। बलबन का महल कुश्के लाल भी यहां कहीं रहा होगा जिसमें अलाउद्दीन खिलजी की ताजपोशी की गई थी।
जमाली - कमाली मस्जिद के पीछे से होती हुई एक पगडंडी सिकंदर लोधी के जमाने की राजों की बैंस तक जाती है। तीन मंजिलों वाली इस आयताकार बावली के बगल में छतरी और मस्जिद है। बावली के उत्तरी छोर से पानी तक पहुंचने के लिए 66 सीढ़ियां बनी हैं।
इस बावली की संरचना में तुगलक और लोधी शैली का मेल है। राजों की बैंस बनने से पहले भी इस जगह बावली रही होगी। कहते हैं कि कुतुब मीनार और कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को बनाने के लिए पानी इसी बावली से ले जाया गया था। चूंकि इसके पानी का इस्तेमाल राजमिस्त्री किया करते थे इसलिए इस बावली का नाम राजों की बैंस पड़ गया।
उस जमाने में बावलियों की बड़ी अहमियत थी। तब घरों में कुएं नहीं हुआ करते थे। लोग पानी भरने के अलावा एकदूसरे से मिलने जुलने और आराम करने के लिए भी बावली तक जाया करते थे। राजों की बैंस की बनावट से लगता है कि यह आसपास के बाशिंदों के लिए सामाजिक संपर्क का केन्द्र भी रहा होगा।
इस बावली के ठीक सामने और बाईं ओर कुछ दूरी पर लोधियों के जमाने के दो भव्य मकबरे हैं। इन्हें देख कर लगता है कि इनमें दफन लोग शाही महल की बड़ी हस्तियां रहे होंगे। पार्क में जगह - जगह इसी तरह के खंडहर बिखरे पड़े हैं। अब भुतहा लगने वाली इन हवेलियों, सैरगाहों, मकबरों और इबादतखानों में गुजरे जमाने की कितनी ही यादें जुगनुओं की तरह झिलमिलाती हैं।
ज्यादातर लोगों के लिए महरौली का मतलब कुतुब मीनार और उसकी चहारदीवारी के अंदर की इमारतें हैं। लेकिन हकीकत में इस समूचे इलाके की धरती पर दिल्ली का बीता कल बिखरा पड़ा है। कुतुब और पुरातत्व उद्यान की चैहद्दियों के बाहर भी शम्सी तालाब, जहाज महल, आदम खान का मकबरा, जफर महल, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह और गंधक बावली जैसे कई ऐसे ऐतिहासिक धरोहर हैं जिन्हें देख कर महरौली की संपन्न विरासत का अनुमान लगाया जा सकता है।
संडे नई दुनिया में 11 जनवरी 2009 को प्रकाशित

Sunday, April 26, 2009

बेगम समरू की खूबसूरत यादगार है

सरधना का गिरजाघर
पार्थिव कुमार
सरधना उत्तर प्रदेश में मेरठ के नजदीक एक छोटा सा कस्बा है जिसकी सांसों में बेनजीर खूबसूरती की मलिका बेगम समरू की रूह बसती है। बेगम समरू, यानी फरजाना, यानी जेबुन्निसा जो दिल्ली के चावड़ी बाजार के एक कोठे से निकल कर दौलत, ताकत और शोहरत की बुलंदियों तक पहुंची और मुगलकालीन इतिहास का एक बेहद दिलचस्प पन्ना बन गई। इस छोटे से कस्बे की 18 वीं और 19 वीं सदी की इमारतें, टूटीफूटी सड़कें और आबोहवा अपने दामन में इतिहास का वही पन्ना समेटे हुए हैं।
फरजाना की मां चावड़ी बाजार में तवायफ थी जिसे बाद में मेरठ के करीब कोटाना के असद खान ने अपनी रखैल बना लिया था। फरजाना का जन्म कोटाना में ही 1753 में हुआ। इसके सात साल बाद ही असद की मौत हो गई और मां और बेटी को दिल्ली लौटना पड़ा। दोनों कुछ दिन कश्मीरी गेट के नजदीक रहने के बाद जामा मस्जिद इलाके में बस गईं। उसी साल फरजाना को चावड़ी बाजार की एक तवायफ खानम जान के सुपुर्द कर उसकी मां इस दुनिया से रुखसत हो गई।
खानम जान के कोठे पर ही 1767 में फरजाना की मुलाकात भाड़े की सेना चलाने वाले वाल्टर रेनहार्ट सोम्ब्रे से हुई। उम्र में फरजाना से तीस साल बड़ा रेनहार्ट इस कमसिन सुंदरता पर फिदा हो गया। दोनों के दिल मिले और फरजाना चांदनी चैक की रौनक को पीछे छोड़ अपने आशिक के साथ एक ऐसे लंबे सफर पर निकल पड़ी जिसकी मंजिल का उसे कोई अंदाजा नहीं था। दोनों लखनअू , रोहिलखंड, आगरा, भरतपुर और डीग होते हुए आखिर में सरधना पहुंच गए।
जर्मनी का रेनहार्ट 1754 में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आया था। उसकी फौज भारी रकम मिलने पर किसी के लिए भी काम करने को तैयार रहती थी। मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर उसने सहारनपुर के रोहिल्ला लड़ाके जाबिता खान को शिकस्त दी। इससे खुश होकर शाह आलम ने दोआब में एक बड़ी जागीर रेनहार्ट के नाम कर दी और वह सरधना में ही बस गया। लेकिन इसके पांच साल बाद ही रेनहार्ट दुनिया से कूच कर गया और 18 यूरोपीय अफसरों और 4000 सैनिकों की उसकी फौज फरजाना के हाथों में आ गई।
शौहर के इंतकाल के तीन साल बाद फरजाना ने ईसाइयत कबूल कर ली और जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे बन गई। बाद में सोम्ब्रे का सोम्बर हुआ और फिर फरजाना बन गई बेगम समरू। लड़ाई के मैदान से कूटनीति के अखाड़े तक बेगम समरू की तूती बोलती थी और हालात खिलाफ होने के बावजूद वह 1837 में अपनी मौत होने तक सरधना की जागीर पर काबिज रही। उसने शाह आलम की मदद कर उसका दिल जीत लिया और उसकी मुंहबोली बेटी बन गई। हुआ यह कि बघेल सिंह की अगुवाई में 30000 सिखों ने 1783 में दिल्ली पर हमला बोल दिया और उस जगह तक पहुंच गए जिसे अब तीस हजारी के नाम से जाना जाता है। तब बेगम समरू ने ही शाह आलम और सिखों के बीच सुलह कराई और बघेल कीमती तोहफों का खजाना लेकर लौट गया।
चार साल बाद नजफ कुली खान की बगावत को नाकाम करने में भी बेगम समरू ने शाह आलम की मदद की। इसके बाद शाह आलम ने सरधना की जागीर पर रेनहार्ट की पहली बीवी के बेटे नवाब जफरयाब खान के दावे को खारिज कर दिया और बेगम समरू जायदाद की इस जंग में भी कामयाब रही।
बेगम समरू की आशिकमिजाजी के भी कई किस्से मशहूर हैं मगर उनका कोई पुख्ता ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता। उसके दीवानों में फ्रांस के ली वसाउ और आयरलैंड के जार्ज थामस का खूब जिक्र आता है। बेगम समरू को अपनी ही फौज के अफसर ली वसाउ से 1793 में निकाह करने के बाद सैनिकों की बगावत का सामना करना पड़ा। बागी सैनिकों से घिर जाने पर वसाउ ने अपने सिर में गोली मार ली। बेगम समरू ने भी खंजर घोंप कर खुदकुशी की कोशिश की मगर वह इसमें कामयाब नहीं हुई।
1803 में बेगम समरू ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मुख्तारी कबूल कर ली और अपनी जागीर और अकूत जायदाद दोनों को ही बचाने में सफल रही। अब उसकी दिलचस्पी स्थापत्य की ओर हुई और उसने कई शानदार इमारतें बनवाई। दिल्ली के चांदनी चैक में मुगल बादशाह अकबर शाह से मिली जमीन पर उसने एक बेहद खूबसूरत हवेली बनवाई जिसमें अब बिजली के सामान का एशिया का सबसे बडा बाजार भागीरथ पैलेस है। मगर उसे याद किया जाता है सरधना के चर्च आफ लेडी आफ ग्रेसेस और आसपास की इमारतों के लिए जिनमें रोमन और मुगल स्थापत्य एकदूसरे के आगोश में गुंथे हुए हैं।

सरधना की हर सड़क गिरजाघर तक जाती है। किसी से पूछने के लिए रुको इससे पहले ही लोग हाथ के इशारे से उस तक का रास्ता बता देते हैं। आखिर उनके कस्बे की पहचान जो इससे जुड़ी है। सैंकड़ों पावरलूम की कभी नहीं रुकने वाली धकधक के साथ यह गिरजाघर भी उनके दिलों में हमेशा के लिए समाया हुआ है।
उत्तर भारत के इस सबसे बड़े गिरजाघर को बनाने में लगभग 11 साल और चार लाख रुपए लगे और यह 1822 में बन कर तैयार हुआ। इसके आर्किटेक्ट इटली के अंतोनियो रेगेलिनी थे और इसमें रोम के सेंट पीटर्स के अलावा मुगल स्थापत्य की छाप साफ दिखाई देती है। पहले यह गिरजाघर कैथेड्रल था मगर 1961 में इसे पोप से माइनर बेसिलिका का दर्जा मिल गया। इसे बनाने के लिए जिस जगह से मिट्टी निकाली गई वहां दो सुंदर तालाब बन गए हैं।
अहाते के गेट से गिरजाघर की दूरी तकरीबन 100 मीटर है। रास्ता आम के बगीचे को चीरता हुआ गुजरता है। इसके दोनों तरफ ईसा मसीह की सलीब यात्रा के 14 मुकामों को सफेद मूर्तियों के जरिए दिखाया गया है। रास्ता अपने दोनों हाथ फैलाए ईसा मसीह की एक मूर्ति के सामने जाकर खत्म होता है। लेकिन गिरजाघर का मुख्य दरवाजा इसके सामने नहीं है। इस दरवाजे तक पहुंचने के लिए दाहिनी ओर मु़़ड़ कर जाना होता है।
गिरजाघर को सामने से कुछ फासले से देखने पर ही उसकी मुकम्मल खूबसूरती का एहसास होता है। लगता है जैसे बेगम समरू का सादगी से भरा अभिजात हुस्न आंखों के सामने बिखरा पड़ा हो। सामने का बरामदा 18 खंभों पर टिका हुआ है। छत पर बने तीन गुंबदों में बीच वाला बड़ा है और उसके आजूबाजू वाले छोटे। पीछे से दो मीनारें आसमान में सूराख करने के लिए उचक रही हैं। गुंबदों और मीनारों पर लगे धातु के गोले और क्रास इतने साल बीत जाने के बावजूद सूरज की रोशनी में चेहरे पर सुनहरा आईना चमकाते हैं।
अंदर घुसते ही ठीक सामने एक बडा चबूतरा है जिस पर मदर मैरी अपने शिशु को गोद में लिए हैं। इसके नीचे सलीब पर ईसा मसीह की मूर्ति है। चबूतरा और उसके आसपास का हिस्सा राजस्थान से लाए गए संगमरमर से बना है। उस पर रंगीन पत्थरों से फूल उकेरे गए हैं। दोनों तरफ दो और चबूतरे हैं जिनमें से एक पर लेडी आफ ग्रेसेस और दूसरे पर ईसा मसीह की मूर्ति है। लकड़ी पर चुनींदा रंगों से बनी लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति इटली से लाकर 1957 में इस गिरजाघर में लगाई गई थी।
इन चबूतरों पर गुंबदों के रोशनदानों से छन कर आती सूरज की रोशनी में मूर्तियां और मेहराबों की पच्चीकारी चमक उठती है। गिरजाघर में संगमरमर और रंगीन पत्थरों के बेहतरीन इस्तेमाल को देख कर अचानक ही ताजमहल आंखों के सामने कौंध उठता है। बड़े चबूतरे की बाईं ओर बेगम समरू की कब्र है जिस पर 8 फीट का संगमरमर का स्मारक है जिसे इटली के मशहूर मूर्तिकार अदामो तादोलीनी ने बनाया था। इसकी चोटी पर बेगम समरू खास मुस्लिम अंदाज में बैठी है। उसके नीचे बेगम के सौतेले नाती और वारिस डेविड आक्टरलोनी डाइस सोम्ब्रे और तीन सलाहकारों की मूर्तियां हैं। सबसे नीचे खड़ी छह मूर्तियां निडरता, ज्ञान, तसल्ली और संपन्नता का प्रतीक हैं।
ईसाई बनने के बाद भी बेगम समरू तमाम जिंदगी अपनी इस्लामी जड़ों से नाता नहीं तोड़ सकी। जिस्म पर दिल्ली की नजाकत ओढ़े हिन्दुस्तान की इस पहली ईसाई जागीरदार का दिल किसी सूफी फकीर की तरह था। क्रिसमस के मौके पर सरधना में होने वाले तीन दिनों के जश्न में भोज के अलावा नाचगाना, आतिशबाजी और मुशायरा भी शामिल रहता था। फरसू के नाम से लिखने वाले फ्रांज गोटलिएब कोहेन समेत उसकी फौज के तीन यूरोपीय कमांडर तो उर्दू में शायरी भी करने लगे थे।
बेगम समरू की जागीर में हिंदू , मुस्लिम और ईसाई के बीच कोई फर्क नहीं था। क्रिसमस के अलावा ईद, दशहरा, दिवाली और होली का त्यौहार भी धूमधाम से मनाया जाता था। सरधना का गिरजाघर अब भी मजहबों के बीच भाईचारे का उसका पैगाम देता है। इसमें हर मजहब के लोग लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति के आगे सिर झुका कर मन्नत मांगने आते हैं।
गिरजाघर के बगल में जिस इमारत में कभी बिशप रहा करते थे वह अब लड़कियों का स्कूल है। अहाते के ठीक सामने बने बेगम के पुराने महल में अब सेंट जोंस सेमीनरी चलती है। यह महल रेनहार्ट को सरधना की जागीर मिलने से पहले का है। बेगम समरू सरधना आने से लेकर अपने इंतकाल के कुछ पहले तक इसी महल में रही। उसने अपने लिए जो नया महल बनवाना शुरू किया था वह उसके गुजरने से एक साल पहले ही तैयार हो सका। मुगल शैली में बने पुराने महल का बरामदा काफी शानदार है। वक्त के साथ की गई तब्दीलियों के बावजूद इस महल के पुराने वैभव को महसूस किया जा सकता है। महल के तहखाने में कमरे बने हैं जिनमें गर्मी के दिनों में बेगम और उसका परिवार रहा करता था। लेकिन अब सरधना में जमीन में पानी का स्तर बढ़ जाने की वजह से इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता। मानसून में इन कमरों में पानी भर जाता है और सीलन तो समूचे साल ही बनी रहती है।
नए महल में अब इंटर कालेज चलता है। यूनानी शैली में बने इस महल में बेगम के गुसलखाने खास तौर से देखने लायक हैं। इनकी संगमरमर की दीवारों पर नफीस पच्चीकारी है। लेडी फारेस्टर अस्पताल और अंतोन कोठी बेगम से सीधे तौर पर रिश्ता नहीं रखने के बावजूद उनकी यादों से जुड़े हैं। अस्पताल को डाइस की बीवी ने बेगम समरू के धन से बनवाया था और रेगेलिनी के बंगले अंतोन कोठी का इस्तेमाल चर्च से जुडे लोगों की रिहाइशके लिए किया जाता है।
सरधना की रूह तक उतरने के लिए इन सब के अलावा कैथोलिक कब्रगाह पर भी एक नजर डालना जरूरी है। इसमें रेनहार्ट और रेगेलिनी के परिवारवालों के अलावा बेगम का दूसरा शौहर वसाउ भी दफन है। नजदीक ही कर्नल जान रेमी सालेउर की कब्र भी है जिसने 1795 में सैनिकों की बगावत के दौरान बेगम समरू का साथ दिया था। बेगम के खानदान के लोगों की कब्रों पर बने मकबरों को देख कर लगता है कि किसी जमाने में वे बहुत ही खूबसूरत रहे होंगे मगर अब उनकी हालत एकदम खस्ता है।
कब्रों के अंदर सिर्फ मुरदे नहीं सोते बल्कि जिंदगियों से जुड़ी कई जिंदा कहानियां भी दफन होती हैं। लेकिन इन कब्रों में से ज्यादातर पर लिखी इबारत को पढ़ पाना अब मुमकिन नहीं है। इन टूटीफूटी कब्रों के बीच से गुजरते हुए जिंदगी की नश्वरता का आभास होता है। लेकिन इस सचाई से रूबरू कराने के लिए आप ईश्वर के बजाय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का शुक्रिया अदा कर सकते हैं जिस पर कब्रिस्तान की देखभाल की जिम्मेदारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में इन मकबरों का वजूद कम से कम इस खस्ता हाल में भी बना रहेगा।
संडे नई दुनिया में 12 अक्टूबर 2008 को प्रकाशित