इतिहास की किताब जैसा एक पार्क
पार्थिव कुमार
महरौली का पुरातत्व उद्यान शहर के शोरशराबे से थकी दिल्ली को अतीत के आंगन में सुकून के कुछ पल गुजारने की दावत देता है। इतिहास की किसी दिलचस्प किताब जैसा है यह पार्क। इसमें करीने से सजाई गई फूलों की क्यारियों, कीकर और बबूल के दरख्तों और जंगली झाड़ियों के बीच तोमरों से लेकर अंग्रेजों के जमाने तक तकरीबन 1000 बरसों की यादें बिखरी पड़ी हैं।
कुतुब मीनार के दक्षिण में अणुव्रत मार्ग पर लगभग 200 एकड़ में फैले इस पार्क में 80 से ज्यादा पुरानी इमारतों के खंडहर हैं। इनमें से सिर्फ कुछ ही के बारे में पूरी जानकारी है। बाकियों की बनावट को देख कर सिर्फ उनके निर्माण के काल के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। इन खंडहरों को उस वक्त का इंतजार है जब पुरातत्वविद् उनकी पूरी पहचान को रोशन कर सकेंगे।
जानकारों के मुताबिक इस पार्क के टीलों के नीचे पहली और दूसरी दिल्ली - लालकोट और किला राय पिथौरा के अवशेष दफन हैं। लालकोट को तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय ने 11 वीं सदी में और किला राय पिथौऱा को पृथ्वीराज चैहान ने इससे लगभग सवा सौ साल बाद बनवाया था। अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में इस इलाके में घनी आबादी थी। कुतुब के अहाते में बने अलाई दरवाजे के बाहरी हिस्से में सफेद और लाल संगमरमर से की गई नफीस नक्काशी से साबित होता है कि इस मीनार के दक्षिणी हिस्से में बसावट रही होगी।
कुतुब से 275 मीटर दक्षिण पूर्व में पार्क के एक सिरे पर कुली खान का मकबरा है। कुली खान मुगल बादशाह अकबर की दाई माहम अंगा का बेटा था। माहम अंगा के दूसरे बेटे आदम खान को अकबर के हुक्म पर आगरा के किले से गिरा कर मार डाला गया था। उसने अकबर के वजीर अतगा खान की सरेआम हत्या कर दी थी। माहम अंगा और आदम खान का मकबरा पार्क के बाहर थोड़ी ही दूरी पर बना हुआ है।
कुली खान का मकबरा आठ कोनों वाला है। इस पर मुगलों से पहले के समय की छाप साफ दिखाई पड़ती है। लोधियों के जमाने के छज्जे इसमें नहीं हैं। लेकिन गुंबद की डिजाइन मुगल इमारतों से पहले की है। इतना तो कहा ही जा सकता है इसे मुगल शैली के गुंबद वाली पहली इमारत हुमायूं के मकबरे से पहले बनाया गया होगा।
उन्नीसवीं सदी में दिल्ली के ब्रिटिश रेसिडेंट थामस मेटकाफ ने इस मकबरे को खरीद लिया। मेटकाफ को मुगलों जैसी शानोशौकत से रहने का फितूर था। वह इस मामले में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से होड़ करता था। मेटकाफ 40 साल तक दिल्ली में रहा। इस दौरान वह हमेशा कोशिश में लगा रहा कि बहादुर शाह जफर के साथ ही दिल्ली के तख्त से तैमूर के वारिसों का राज खत्म हो जाए।
महरौली में ही बने बहादुर शाह के जफर महल के जवाब में मेटकाफ ने कुली खान के मकबरे में तब्दीलियां कर उसे अपना आरामगाह बना लिया। मुगलों के राज के खात्मे का उसका सपना भी पूरा तो हुआ मगर उसकी मौत के बाद। उसकी मौत 1853 में पेट की बीमारी से हुई जिसके बारे में कहा जाता है कि बहादुर शाह की छोटी बेगम जीनत महल ने उसे जहर दिलवा दिया था।
मेटकाफ ने मकबरे के चारों तरफ बने बरामदे को कमरों में तब्दील कर दिया। बीच के हाल के अूपर उसने अपना डाइनिंग रूम बनवाया। मकबरे के सामने उसने मुगलों की खास चारबाग शैली में बाग बनवाया जिसके बीचोंबीच एक खूबसूरत चबूतरा अब भी मौजूद है। मकबरे के इर्दगिर्द के इलाके में तब्दीलियां करते समय स्थापत्य के तालमेल का खास ध्यान रखा गया। मेटकाफ ने अपने आरामगाह को ‘दिलकुशा‘ नाम दिया।
अंग्रेजों के जमाने में इस इलाके में कई बदलाव किए गए। कुतुब की ओर जाने वाले एक दरवाजे को मेहमानखाने में बदल दिया गया। इसके दक्षिण में अलाव जलाने की जगह और उत्तर में तालाब बनाया गया। मकबरे के पास बना बोट हाउस बेहद खूबसूरत है। मकबरे से पार्क की ओर जाने के लिए मेटकाफ पुल से होकर गुजरना होता है। हौज शम्सी से यमुना नदी की ओर बहने वाली नहर उस जमाने में इस पुल के नीचे से गुजरती थी।
कुली खान के मकबरे से जमाली - कमाली मस्जिद तक फैला हुआ था दिलकुशा। बीच की जगह को सजाने के लिए मेटकाफ ने नकली खंडहर और कोस मीनारें बनवाईं। मस्जिद के पास मेटकाफ की छतरी अब भी मौजूद है। दिलकुशा में घुसने के लिए मस्जिद के पास एक बडा दरवाजा था। संतरियों के घर और बग्घियों को खड़ा करने की जगह इसके नजदीक ही थी। मेटकाफ के मेहमानों को खूबसूरत बग्घी में बैठा कर इस दरवाजे से 455 मीटर दूर मेहमानखाने तक ले जाया जाता था।
1529 में बनाई गई जमाली - कमाली मस्जिद की खासियत उसकी सादगी है। पांच मेहराबदार द्वारों वाली इस आयताकार मस्जिद के बीच के खंड पर बुर्ज हैं। पांचों मेहराबों के दोनों तरफ कमल के आकार की सजावट है और बीच के मेहराब के अूपर एक सुंदर झरोखा। लाल सैंडस्टोन और संगमरमर से बनी इस मस्जिद की शैली भी लोधी और मुगलकाल के बीच की है।
मस्जिद के सामने आठ कोनों वाला हौज है। बगल में बने दो आंगनों में कई कब्रें हैं। जमाली और कमाली की कब्रें एक छोटे से चैकोर मकबरे के अंदर हैं जिसके अंदरूनी हिस्से में महीन सजावट है। कमाली के बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन जमाली के नाम से मशहूर शेख फजलुल्लाह एक यायावर और शायर था जिसने सिकंदर लोधी के दरबार में नौकरी कर ली थी। इस मकबरे की दीवारों पर उसकी कविताओं को खूबसूरती से उकेरा गया है। इसके ठीक सामने एक कब्र के अूपर छतरी है मगर बाकी सभी कब्रें खुली हैं।
जमाली - कमाली मस्जिद के ठीक सामने खंडहरों के बीच गुलाम वंश का आखिरी सुलतान बलबन दफन है। इसके नजदीक ही बलबन के बेटे खान शाहिद का मकबरा है। खान शाहिद की मौत बलबन से दो साल पहले ही लाहौर में चंगेज खान के सेनापति साभर से लड़ते हुए हुई थी। अपने आखिरी दिनों में बलबन की हालत पागलों जैसी हो गई थी और वह बेटे की मौत के गम में रात भर आंसू बहाता रहता था।
बलबन का मकबरा चैकोर और काफी बड़ा है। अब सिर्फ इसकी दीवारें ही बची हैं। वैज्ञानिक ढंग से बनाए गए इसके मेहराब पुरातत्व की नजर से बहुत अहमियत रखते हैं। उस जमाने में इस इलाके में पूरा एक शहर हुआ करता था। खंडहरों को देख कर लगता है कि इलाके में महल, मकान और बाजार भी थे। बलबन का महल कुश्के लाल भी यहां कहीं रहा होगा जिसमें अलाउद्दीन खिलजी की ताजपोशी की गई थी।
जमाली - कमाली मस्जिद के पीछे से होती हुई एक पगडंडी सिकंदर लोधी के जमाने की राजों की बैंस तक जाती है। तीन मंजिलों वाली इस आयताकार बावली के बगल में छतरी और मस्जिद है। बावली के उत्तरी छोर से पानी तक पहुंचने के लिए 66 सीढ़ियां बनी हैं।
इस बावली की संरचना में तुगलक और लोधी शैली का मेल है। राजों की बैंस बनने से पहले भी इस जगह बावली रही होगी। कहते हैं कि कुतुब मीनार और कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को बनाने के लिए पानी इसी बावली से ले जाया गया था। चूंकि इसके पानी का इस्तेमाल राजमिस्त्री किया करते थे इसलिए इस बावली का नाम राजों की बैंस पड़ गया।
उस जमाने में बावलियों की बड़ी अहमियत थी। तब घरों में कुएं नहीं हुआ करते थे। लोग पानी भरने के अलावा एकदूसरे से मिलने जुलने और आराम करने के लिए भी बावली तक जाया करते थे। राजों की बैंस की बनावट से लगता है कि यह आसपास के बाशिंदों के लिए सामाजिक संपर्क का केन्द्र भी रहा होगा।
इस बावली के ठीक सामने और बाईं ओर कुछ दूरी पर लोधियों के जमाने के दो भव्य मकबरे हैं। इन्हें देख कर लगता है कि इनमें दफन लोग शाही महल की बड़ी हस्तियां रहे होंगे। पार्क में जगह - जगह इसी तरह के खंडहर बिखरे पड़े हैं। अब भुतहा लगने वाली इन हवेलियों, सैरगाहों, मकबरों और इबादतखानों में गुजरे जमाने की कितनी ही यादें जुगनुओं की तरह झिलमिलाती हैं।
ज्यादातर लोगों के लिए महरौली का मतलब कुतुब मीनार और उसकी चहारदीवारी के अंदर की इमारतें हैं। लेकिन हकीकत में इस समूचे इलाके की धरती पर दिल्ली का बीता कल बिखरा पड़ा है। कुतुब और पुरातत्व उद्यान की चैहद्दियों के बाहर भी शम्सी तालाब, जहाज महल, आदम खान का मकबरा, जफर महल, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह और गंधक बावली जैसे कई ऐसे ऐतिहासिक धरोहर हैं जिन्हें देख कर महरौली की संपन्न विरासत का अनुमान लगाया जा सकता है।
संडे नई दुनिया में 11 जनवरी 2009 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment