Wednesday, April 29, 2009

तीन लड़ाइयों की बरबादी दामन में समेटे है

पानीपत
पार्थिव कुमार
अबू अली शाह कलंदर के इस फक्कड़ मिजाज शहर ने जिंदगी की भागमभाग में अपने जख्मों को भुला दिया है। लड़ाई दिल्ली के तख्त और ताज की मगर हर बार सीना कुचला गया पानीपत का। तकरीबन 235 साल के दरमियान हुई तीन लड़ाइयों ने इसकी तबाही में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर दफा हजारों लाशों से इसकी धरती पट गई। लहू इतना बहा कि कहते हैं जमीन के साथ ही 11 किलोमीटर दूर जमुना का पानी भी लाल हो गया।
लेकिन अब यह सब इतिहास की किताब का हिस्सा हो चुका है। जो कभी कंटीली झाड़ियों में उलझी बंजर जमीन थी वहां अब केंचुए की तरह रेंगती संकरी गलियों में इंसानी सैलाब बहता है। जहां हिंदुस्तान पहली बार तोपों की गरज से कांप उठा था वहां हथकरघों की ठकठक दरगाह से उठती कव्वाली की लय से संगत करती है। खून की बास की वजह से जिस हवा में सांस लेना मुश्किल था उसमें अब अचार की खुशबू फैली है।
हैंडलूम और अचार पानीपत की नई पहचान हैं। जिधर देखो - काते, धोए, रंगे, सुखाए और बैलगाड़ियों से लेकर ट्रकों तक पर ढोए जाते कपड़े दिखाई देते हैं। सड़कों के किनारे अचार की अनगिनत दुकानें हर आने जाने वाले को दावत देती हैं। मगर इन सब के बीच बीते समय को हमेशा के लिए दफन कर देना इतना आसान नहीं है। अतीत के अब भी जिंदा जो कुछेक टुकड़े इस शहर को पुराने दिनों से जोड़े हुए हैं उनमें बाबरी मस्जिद एक है।
काबुली बाग इलाके में बनी यह खूबसूरत मस्जिद हिंदुस्तान में मुगलों के जमाने की पहली इमारत है। इसे बाबर ने 1529 में उस जगह बनवाया था जहां उसने इब्राहीम लोधी को हराने के बाद शुकराने की नमाज पढ़ी थी। इस अनूठी मस्जिद में नक्काशी का काम बहुत कम और दरवाजे तक ही सिमटा हुआ है।
बाबरी मस्जिद के बीच के हिस्से की छत पर एक बड़ा गुंबद है। इसके दोनों तरफ 18 छोटे गुंबद हुआ करते थे जिनमें से अब नौ ही बचे हैं। मस्जिद का दक्षिण का आधा हिस्सा पूरी तरह से ढह चुका है। हुमायूं ने शेर शाह सूरी के वंशज इस्लाम शाह पर जीत के बाद इसके सामने एक चबूतरा बनवाया था जिसका अब नामोनिशान तक नहीं है।
इस मस्जिद की दो खासियतें इसे मुगलों के समय की बाकी ज्यादातर इमारतों से अलग करती हैं। एक तो इसे पतली लाखौरी ईंटों से बनाया गया है जबकि दिल्ली की ज्यादातर मुगलकालीन मस्जिदें सैंडस्टोन की हैं। दूसरे, इस पर कोई मीनार नहीं है। आकार में बड़ी और सादगी से भरी यह मस्जिद शुरुआती मुगल स्थापत्य का नायाब नमूना है।
बाबर ने धनदौलत से लबरेज हिंदुस्तान पर राज करने के सपने देखना 1505 से ही शुरू कर दिया था। उसने 1519 और 1520 में इस पर तीन नाकाम हमले किए। इसके तीन साल बाद लाहौर के सूबेदार दौलत खान की इब्राहीम लोधी के साथ गद्दारी ने बाबर का काम आसान बना दिया। फिर भी 1524 में किए अपने चैथे हमले में उसे इस देश को जीतने में कामयाबी नहीं मिल सकी। नवंबर 1525 में तोपखाने से लैस बाबर ने पूरी तैयारी के साथ काबुल से हिंदुस्तान के लिए कूच किया। उसने 15 दिसंबर को सिंधु नदी पार की और फिर झेलम को लांघते हुए लाहौर तक पहुंच गया। जिस दौलत खान ने कभी उसे हिंदुस्तान पर हमला करने का न्यौता दिया था वह अब लाहौर में अपने 40 हजार सिपाहियों के साथ उससे लोहा लेने को तैयार था। मगर बाबर की सेना को सामने देखते ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई और वह भाग खड़ा हुआ। इसके बाद बाबर रोपड़ में सतलुज को पार करते हुए अंबाला पहुंचा और इस दौरान उसकी राह में कोई अड़चन नहीं आई।
एक अप्रैल 1526 को बाबर की सेना पानीपत पहुंच चुकी थी। इब्राहीम लोधी की एक लाख सिपाहियों और 100 हाथियों की फौज के सामने उसके पास कुल जमा 12 हजार सैनिक थे। लेकिन मैदाने जंग में ही पल कर बड़ा हुआ बाबर लड़ाई के पेंचों को बखूबी समझता था और उसने अपनी एक चाल में ही दिल्ली के सुलतान को फांस लिया। उसने नौ अप्रैल को अपने मुट्ठी भर घुड़सवारों को दुश्मन सेना से लड़ने के लिए भेज दिया जो कुछ देर मुकाबला करने के बाद भाग खड़े हुए। इससे इब्राहीम लोधी को लगा कि दुश्मनों को आसानी से हराया जा सकता है और उसने हमला करने का मन बना लिया। अगले 11 दिन दोनों ही खेमे एकदूसरे की ताकत को तोलते रहे और इस दौरान मामूली झड़पें ही हुईं। आखिरकार इब्राहीम लोधी की सेना ने 21 अप्रैल को सूरज उगने के साथ ही धावा बोल दिया। लेकिन बाबर ने उसे तीन तरफ से घेरने का पूरा इंतजाम कर रखा था और सिर्फ कुछेक घंटों में लगभग 30 हजार मौतों के बाद दोपहर तक लड़ाई खत्म भी हो गई। तोपों की दहाड़ से घबराए हाथियों ने इब्राहीम लोधी के सैनिकों को ही अपने पैरों तले कुचल दिया। आसमान तक छाया धूल का गुबार छंटा तो चीखें कराहों में तब्दील हो चुकी थीं और दिल्ली के सुलतान का जिस्म छह हजार लाशों के ढेर में पड़ा था। मंगोल सैनिकों ने उसके सिर को धड़ से अलग कर बाबर के सामने पेश कर दिया।
उस रोज लोधी वंश का सूरज हमेशा के लिए ढल गया। हफ्ता भर बाद दिल्ली में बाबर के नाम का खुतबा पढ़ा गया और हिंदुस्तान के तख्त पर तैमूर और चंगेज खान के खून का कब्जा हुआ जो अगले 331 साल तक कायम रहा। हिन्दुस्तान की तस्वीर और तकदीर बदल देने वाले इन ऐतिहासिक पलों का गवाह रहे पानीपत में इब्राहीम लोधी का मकबरा अब भी उन दहशतनाक दिनों की याद दिलाता है।
एक हारे हुए सुलतान का यह मामूली सा मकबरा पानी की टंकी जैसा दिखाई देता है। संगमरमर के एक टुकड़े पर फारसी में लिखे चंद हर्फ नहीं होते तो भरोसा करना मुश्किल था कि इब्राहीम लोधी इसके नीचे ही दफन है। मकबरा लाखौरी ईंटों के एक चबूतरे पर बना है जहां तक सीढ़ियां जाती हैं। यहां कोई फूल चढ़ाने या अगरबत्ती दिखाने के लिए नहीं आता। सिर पर कोई गुंबद या छत भी नहीं है। जिसके पैरों तले कभी दुनिया हुआ करती थी वह अब खुले आसमान के नीचे सोया है।
इब्राहीम लोधी की मौत के 30 साल बाद पानीपत की धरती पर एक बार फिर जंग की बिसात बिछ गई। इस बार आमने सामने थे बाबर का पोता अकबर और कभी रेवाड़ी में नमक का सौदागर रहा हेमचंद्र कलानी जिसे इतिहास हेमू के नाम से जानता है। उन दिनों समूचे हिंदुस्तान से बेदखल अकबर जालंधर में टिका था। अफगान सुलतान इब्राहीम शाह की मेहरबानी से वजीर और फिर उथलपुथल का फायदा उठा कर सम्राट बने हेमू का मन दिल्ली में विक्रमजीत का खिताब लेने से नहीं भरा और उसने अकबर का पीछा करने की ठान ली।
उस समय अकबर की उम्र सिर्फ 14 साल की थी। चैबीस लड़ाइयां लड़ चुके हेमू को लगा कि दुश्मन अनाड़ी है और 30 हजार राजपूत सैनिकों और अफगान घुड़सवारों और 500 हाथियों की उसकी सेना को देखते ही वह काबुल भाग खड़ा होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों सेनाएं पांच नवंबर 1556 को पानीपत में गुत्थमगुत्था हो गईं।
अकबर की फौज छोटी थी और हेमू जीत हासिल करने के काफी करीब पहुंच गया था। मगर अचानक आंख में तीर लगने से हेमू बेहोश हो गया और लड़ाई की तस्वीर एक पल में बदल गई। उसके सैनिक भाग खड़े हुए और उसे पकड़ कर अकबर के सामने लाया गया। अकबर के खानबाबा बैरम खान ने हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया और इस तरह दिल्ली पर एक बार फिर मुगलों की बादशाहत कायम हुई।
दूसरी लड़ाई की कोई भी निशानी अब पानीपत में नहीं है। लेकिन 14 जनवरी 1761 को अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई जिस जगह हुई थी वहां एक युद्ध स्मारक बना दिया गया है। यह स्मारक घने पेड़ों और रंगबिरंगे फूलों से सजे एक खूबसूरत बगीचे के अंदर है जहां इस शहर के लोग पिकनिक मनाने जाया करते हैं। कहते हैं कि लड़ाई के दौरान दोनों तरफ से तोपों ने इतना धुआं उगला कि जमीन स्याह हो गई और इसीलिए इस जगह को काली अम्ब के नाम से जाना जाता है। सदाशिव भाउ की अगुवाई में दो सौ तोपों से लैस मराठा सेना में 55 हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सैनिक शामिल थे। सामने खड़ी थी 42 हजार घुड़सवारों, 38 हजार पैदल सिपाहियों और तोपों से लदे दो हजार उंटों की विशाल फौज। पौ फटने के साथ ही शुरू हुआ खूनखराबा दिन भर चलता रहा और तोपों की गरज समूचे माहौल में गूंजती रही।
आखिर में बालाजी राव पेशवा के बेटे विश्वास राव की गोला लगने के बाद घोड़े से गिर कर हुई मौत के साथ ही मराठों का हौसला टूट गया। अपने भतीजे की मौत की खबर पाते ही गुस्से में पागल सदाशिव भाउ विरोधी सेना पर टूट पड़ा मगर अफगान घुड़सवारों ने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। इसके बाद मराठा सेना तितर बितर होने लगी और शाम ढलने के साथ ही लड़ाई भी खत्म हो चुकी थी।
उस रात पानीपत के अंधेरे बियाबान में सर्द हवाएं तूफान की रफ्तार में चल रही थीं। आसमान से लेकर जमीन तक घने कोहरे का परदा था। लाशों के ढेरों के बीच सन्नाटा चहलकदमी कर रहा था। लगता था कि यह स्याही अनंत काल तक पसरी रहेगी। लेकिन ऐसी कितनी ही रातों से गुजर चुके पानीपत को पता था कि हर रात की कोख में सवेरा पलता है। सुबह होते ही दरख्तों के पीछे से सूरज निकलेगा और जिंदगी आंखें मलते हुए फिर से अपनी राह पर चल पड़ेगी।
अबू अली की दरगाह पर सुबह चिड़ियों के जगने से भी पहले होती है। उनका जन्म 1209 में हुआ था और वह 40 साल तक पानीपत में रहे। इसके बाद वह दिल्ली जाकर कुतुब मीनार के पास एक झोंपड़े में रहने लगे जिससे थोड़ी ही दूरी पर उनके पीरोमुर्शिद ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जमातखाना था। उनके मुरीदों में सुलतान गियासुद्दीन बलबन, जलालुद्दीन खिलजी और अलाउद्दीन खिलजी भी शामिल थे। अबू अली का इंतकाल 1324 में 115 साल की उम्र में करनाल में हुआ जहां से उनकी देह को लाकर पानीपत में दफनाया गया।
दरगाह पर सभी मजहबों के लोगों का आना जाना दिन भर लगा रहता है। मन्नत मांगने वाले मकबरे में बनी एक जगह पर ताला लगा कर जाते हैं जिसे मुराद पूरी होने के बाद आकर खोलना होता है। अबू अली के बारे में मशहूर है कि उनके जमाने में जमुना पानीपत से गुजरती थी। वह उनकी इतनी इज्जत करती थी कि एक बार सात कदम पीछे हटने के लिए कहे जाने पर वह शहर से सात मील दूर चली गई। दरगाह के अहाते में पहुंचने के लिए एक मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। सामने संगमरमर के एक चैकोर चबूतरे पर बनी दरगाह के अंदर अबू अली का मकबरा है। इसके आसपास वजूखाना, आने वालों के ठहरने के लिए कमरे और दफ्तर बने हैं। अहाते में कुछ और कब्रें भी हैं जो शायद उनके मुरीदों और नजदीकी लोगों की होंगी।
हजारों साल पहले पांडवों ने हस्तिनापुर पर राज करने वाले अपने चचेरे भाइयों से पानीपत समेत पांच गांव मांगे थे। इस मांग को मानने से कौरवों के इनकार के बाद ही महाभारत की लड़ाई शुरू हुई थी। कुरुक्षेत्र में सत्रह दिनों तक चले इस घमासान को पानीपत ने लगभग 74 किलोमीटर दूर खड़े होकर देखा। तब से ही बरबादी की कई कहानियों को यादों में समेटे यह शहर अपने सकोरे में वक्त के सिक्कों को उछालता किसी दरवेश की तरह गाता जाता है:
फरीदा पंख पराहुणी दुनी सुहावा बागु ,नउबति वजी सुबह सिउ चलण का करि साजु।
संडे नई दुनिया में 01 फरवरी 2009 को प्रकाशित

दीदारे दिल्ली 1: महरौली पुरातत्व उद्यान

इतिहास की किताब जैसा एक पार्क
पार्थिव कुमार
महरौली का पुरातत्व उद्यान शहर के शोरशराबे से थकी दिल्ली को अतीत के आंगन में सुकून के कुछ पल गुजारने की दावत देता है। इतिहास की किसी दिलचस्प किताब जैसा है यह पार्क। इसमें करीने से सजाई गई फूलों की क्यारियों, कीकर और बबूल के दरख्तों और जंगली झाड़ियों के बीच तोमरों से लेकर अंग्रेजों के जमाने तक तकरीबन 1000 बरसों की यादें बिखरी पड़ी हैं।
कुतुब मीनार के दक्षिण में अणुव्रत मार्ग पर लगभग 200 एकड़ में फैले इस पार्क में 80 से ज्यादा पुरानी इमारतों के खंडहर हैं। इनमें से सिर्फ कुछ ही के बारे में पूरी जानकारी है। बाकियों की बनावट को देख कर सिर्फ उनके निर्माण के काल के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। इन खंडहरों को उस वक्त का इंतजार है जब पुरातत्वविद् उनकी पूरी पहचान को रोशन कर सकेंगे।
जानकारों के मुताबिक इस पार्क के टीलों के नीचे पहली और दूसरी दिल्ली - लालकोट और किला राय पिथौरा के अवशेष दफन हैं। लालकोट को तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय ने 11 वीं सदी में और किला राय पिथौऱा को पृथ्वीराज चैहान ने इससे लगभग सवा सौ साल बाद बनवाया था। अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में इस इलाके में घनी आबादी थी। कुतुब के अहाते में बने अलाई दरवाजे के बाहरी हिस्से में सफेद और लाल संगमरमर से की गई नफीस नक्काशी से साबित होता है कि इस मीनार के दक्षिणी हिस्से में बसावट रही होगी।
कुतुब से 275 मीटर दक्षिण पूर्व में पार्क के एक सिरे पर कुली खान का मकबरा है। कुली खान मुगल बादशाह अकबर की दाई माहम अंगा का बेटा था। माहम अंगा के दूसरे बेटे आदम खान को अकबर के हुक्म पर आगरा के किले से गिरा कर मार डाला गया था। उसने अकबर के वजीर अतगा खान की सरेआम हत्या कर दी थी। माहम अंगा और आदम खान का मकबरा पार्क के बाहर थोड़ी ही दूरी पर बना हुआ है।
कुली खान का मकबरा आठ कोनों वाला है। इस पर मुगलों से पहले के समय की छाप साफ दिखाई पड़ती है। लोधियों के जमाने के छज्जे इसमें नहीं हैं। लेकिन गुंबद की डिजाइन मुगल इमारतों से पहले की है। इतना तो कहा ही जा सकता है इसे मुगल शैली के गुंबद वाली पहली इमारत हुमायूं के मकबरे से पहले बनाया गया होगा।
उन्नीसवीं सदी में दिल्ली के ब्रिटिश रेसिडेंट थामस मेटकाफ ने इस मकबरे को खरीद लिया। मेटकाफ को मुगलों जैसी शानोशौकत से रहने का फितूर था। वह इस मामले में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से होड़ करता था। मेटकाफ 40 साल तक दिल्ली में रहा। इस दौरान वह हमेशा कोशिश में लगा रहा कि बहादुर शाह जफर के साथ ही दिल्ली के तख्त से तैमूर के वारिसों का राज खत्म हो जाए।
महरौली में ही बने बहादुर शाह के जफर महल के जवाब में मेटकाफ ने कुली खान के मकबरे में तब्दीलियां कर उसे अपना आरामगाह बना लिया। मुगलों के राज के खात्मे का उसका सपना भी पूरा तो हुआ मगर उसकी मौत के बाद। उसकी मौत 1853 में पेट की बीमारी से हुई जिसके बारे में कहा जाता है कि बहादुर शाह की छोटी बेगम जीनत महल ने उसे जहर दिलवा दिया था।
मेटकाफ ने मकबरे के चारों तरफ बने बरामदे को कमरों में तब्दील कर दिया। बीच के हाल के अूपर उसने अपना डाइनिंग रूम बनवाया। मकबरे के सामने उसने मुगलों की खास चारबाग शैली में बाग बनवाया जिसके बीचोंबीच एक खूबसूरत चबूतरा अब भी मौजूद है। मकबरे के इर्दगिर्द के इलाके में तब्दीलियां करते समय स्थापत्य के तालमेल का खास ध्यान रखा गया। मेटकाफ ने अपने आरामगाह को ‘दिलकुशा‘ नाम दिया।
अंग्रेजों के जमाने में इस इलाके में कई बदलाव किए गए। कुतुब की ओर जाने वाले एक दरवाजे को मेहमानखाने में बदल दिया गया। इसके दक्षिण में अलाव जलाने की जगह और उत्तर में तालाब बनाया गया। मकबरे के पास बना बोट हाउस बेहद खूबसूरत है। मकबरे से पार्क की ओर जाने के लिए मेटकाफ पुल से होकर गुजरना होता है। हौज शम्सी से यमुना नदी की ओर बहने वाली नहर उस जमाने में इस पुल के नीचे से गुजरती थी।
कुली खान के मकबरे से जमाली - कमाली मस्जिद तक फैला हुआ था दिलकुशा। बीच की जगह को सजाने के लिए मेटकाफ ने नकली खंडहर और कोस मीनारें बनवाईं। मस्जिद के पास मेटकाफ की छतरी अब भी मौजूद है। दिलकुशा में घुसने के लिए मस्जिद के पास एक बडा दरवाजा था। संतरियों के घर और बग्घियों को खड़ा करने की जगह इसके नजदीक ही थी। मेटकाफ के मेहमानों को खूबसूरत बग्घी में बैठा कर इस दरवाजे से 455 मीटर दूर मेहमानखाने तक ले जाया जाता था।
1529 में बनाई गई जमाली - कमाली मस्जिद की खासियत उसकी सादगी है। पांच मेहराबदार द्वारों वाली इस आयताकार मस्जिद के बीच के खंड पर बुर्ज हैं। पांचों मेहराबों के दोनों तरफ कमल के आकार की सजावट है और बीच के मेहराब के अूपर एक सुंदर झरोखा। लाल सैंडस्टोन और संगमरमर से बनी इस मस्जिद की शैली भी लोधी और मुगलकाल के बीच की है।
मस्जिद के सामने आठ कोनों वाला हौज है। बगल में बने दो आंगनों में कई कब्रें हैं। जमाली और कमाली की कब्रें एक छोटे से चैकोर मकबरे के अंदर हैं जिसके अंदरूनी हिस्से में महीन सजावट है। कमाली के बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन जमाली के नाम से मशहूर शेख फजलुल्लाह एक यायावर और शायर था जिसने सिकंदर लोधी के दरबार में नौकरी कर ली थी। इस मकबरे की दीवारों पर उसकी कविताओं को खूबसूरती से उकेरा गया है। इसके ठीक सामने एक कब्र के अूपर छतरी है मगर बाकी सभी कब्रें खुली हैं।
जमाली - कमाली मस्जिद के ठीक सामने खंडहरों के बीच गुलाम वंश का आखिरी सुलतान बलबन दफन है। इसके नजदीक ही बलबन के बेटे खान शाहिद का मकबरा है। खान शाहिद की मौत बलबन से दो साल पहले ही लाहौर में चंगेज खान के सेनापति साभर से लड़ते हुए हुई थी। अपने आखिरी दिनों में बलबन की हालत पागलों जैसी हो गई थी और वह बेटे की मौत के गम में रात भर आंसू बहाता रहता था।
बलबन का मकबरा चैकोर और काफी बड़ा है। अब सिर्फ इसकी दीवारें ही बची हैं। वैज्ञानिक ढंग से बनाए गए इसके मेहराब पुरातत्व की नजर से बहुत अहमियत रखते हैं। उस जमाने में इस इलाके में पूरा एक शहर हुआ करता था। खंडहरों को देख कर लगता है कि इलाके में महल, मकान और बाजार भी थे। बलबन का महल कुश्के लाल भी यहां कहीं रहा होगा जिसमें अलाउद्दीन खिलजी की ताजपोशी की गई थी।
जमाली - कमाली मस्जिद के पीछे से होती हुई एक पगडंडी सिकंदर लोधी के जमाने की राजों की बैंस तक जाती है। तीन मंजिलों वाली इस आयताकार बावली के बगल में छतरी और मस्जिद है। बावली के उत्तरी छोर से पानी तक पहुंचने के लिए 66 सीढ़ियां बनी हैं।
इस बावली की संरचना में तुगलक और लोधी शैली का मेल है। राजों की बैंस बनने से पहले भी इस जगह बावली रही होगी। कहते हैं कि कुतुब मीनार और कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को बनाने के लिए पानी इसी बावली से ले जाया गया था। चूंकि इसके पानी का इस्तेमाल राजमिस्त्री किया करते थे इसलिए इस बावली का नाम राजों की बैंस पड़ गया।
उस जमाने में बावलियों की बड़ी अहमियत थी। तब घरों में कुएं नहीं हुआ करते थे। लोग पानी भरने के अलावा एकदूसरे से मिलने जुलने और आराम करने के लिए भी बावली तक जाया करते थे। राजों की बैंस की बनावट से लगता है कि यह आसपास के बाशिंदों के लिए सामाजिक संपर्क का केन्द्र भी रहा होगा।
इस बावली के ठीक सामने और बाईं ओर कुछ दूरी पर लोधियों के जमाने के दो भव्य मकबरे हैं। इन्हें देख कर लगता है कि इनमें दफन लोग शाही महल की बड़ी हस्तियां रहे होंगे। पार्क में जगह - जगह इसी तरह के खंडहर बिखरे पड़े हैं। अब भुतहा लगने वाली इन हवेलियों, सैरगाहों, मकबरों और इबादतखानों में गुजरे जमाने की कितनी ही यादें जुगनुओं की तरह झिलमिलाती हैं।
ज्यादातर लोगों के लिए महरौली का मतलब कुतुब मीनार और उसकी चहारदीवारी के अंदर की इमारतें हैं। लेकिन हकीकत में इस समूचे इलाके की धरती पर दिल्ली का बीता कल बिखरा पड़ा है। कुतुब और पुरातत्व उद्यान की चैहद्दियों के बाहर भी शम्सी तालाब, जहाज महल, आदम खान का मकबरा, जफर महल, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह और गंधक बावली जैसे कई ऐसे ऐतिहासिक धरोहर हैं जिन्हें देख कर महरौली की संपन्न विरासत का अनुमान लगाया जा सकता है।
संडे नई दुनिया में 11 जनवरी 2009 को प्रकाशित

Sunday, April 26, 2009

बेगम समरू की खूबसूरत यादगार है

सरधना का गिरजाघर
पार्थिव कुमार
सरधना उत्तर प्रदेश में मेरठ के नजदीक एक छोटा सा कस्बा है जिसकी सांसों में बेनजीर खूबसूरती की मलिका बेगम समरू की रूह बसती है। बेगम समरू, यानी फरजाना, यानी जेबुन्निसा जो दिल्ली के चावड़ी बाजार के एक कोठे से निकल कर दौलत, ताकत और शोहरत की बुलंदियों तक पहुंची और मुगलकालीन इतिहास का एक बेहद दिलचस्प पन्ना बन गई। इस छोटे से कस्बे की 18 वीं और 19 वीं सदी की इमारतें, टूटीफूटी सड़कें और आबोहवा अपने दामन में इतिहास का वही पन्ना समेटे हुए हैं।
फरजाना की मां चावड़ी बाजार में तवायफ थी जिसे बाद में मेरठ के करीब कोटाना के असद खान ने अपनी रखैल बना लिया था। फरजाना का जन्म कोटाना में ही 1753 में हुआ। इसके सात साल बाद ही असद की मौत हो गई और मां और बेटी को दिल्ली लौटना पड़ा। दोनों कुछ दिन कश्मीरी गेट के नजदीक रहने के बाद जामा मस्जिद इलाके में बस गईं। उसी साल फरजाना को चावड़ी बाजार की एक तवायफ खानम जान के सुपुर्द कर उसकी मां इस दुनिया से रुखसत हो गई।
खानम जान के कोठे पर ही 1767 में फरजाना की मुलाकात भाड़े की सेना चलाने वाले वाल्टर रेनहार्ट सोम्ब्रे से हुई। उम्र में फरजाना से तीस साल बड़ा रेनहार्ट इस कमसिन सुंदरता पर फिदा हो गया। दोनों के दिल मिले और फरजाना चांदनी चैक की रौनक को पीछे छोड़ अपने आशिक के साथ एक ऐसे लंबे सफर पर निकल पड़ी जिसकी मंजिल का उसे कोई अंदाजा नहीं था। दोनों लखनअू , रोहिलखंड, आगरा, भरतपुर और डीग होते हुए आखिर में सरधना पहुंच गए।
जर्मनी का रेनहार्ट 1754 में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आया था। उसकी फौज भारी रकम मिलने पर किसी के लिए भी काम करने को तैयार रहती थी। मुगल बादशाह शाह आलम के कहने पर उसने सहारनपुर के रोहिल्ला लड़ाके जाबिता खान को शिकस्त दी। इससे खुश होकर शाह आलम ने दोआब में एक बड़ी जागीर रेनहार्ट के नाम कर दी और वह सरधना में ही बस गया। लेकिन इसके पांच साल बाद ही रेनहार्ट दुनिया से कूच कर गया और 18 यूरोपीय अफसरों और 4000 सैनिकों की उसकी फौज फरजाना के हाथों में आ गई।
शौहर के इंतकाल के तीन साल बाद फरजाना ने ईसाइयत कबूल कर ली और जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे बन गई। बाद में सोम्ब्रे का सोम्बर हुआ और फिर फरजाना बन गई बेगम समरू। लड़ाई के मैदान से कूटनीति के अखाड़े तक बेगम समरू की तूती बोलती थी और हालात खिलाफ होने के बावजूद वह 1837 में अपनी मौत होने तक सरधना की जागीर पर काबिज रही। उसने शाह आलम की मदद कर उसका दिल जीत लिया और उसकी मुंहबोली बेटी बन गई। हुआ यह कि बघेल सिंह की अगुवाई में 30000 सिखों ने 1783 में दिल्ली पर हमला बोल दिया और उस जगह तक पहुंच गए जिसे अब तीस हजारी के नाम से जाना जाता है। तब बेगम समरू ने ही शाह आलम और सिखों के बीच सुलह कराई और बघेल कीमती तोहफों का खजाना लेकर लौट गया।
चार साल बाद नजफ कुली खान की बगावत को नाकाम करने में भी बेगम समरू ने शाह आलम की मदद की। इसके बाद शाह आलम ने सरधना की जागीर पर रेनहार्ट की पहली बीवी के बेटे नवाब जफरयाब खान के दावे को खारिज कर दिया और बेगम समरू जायदाद की इस जंग में भी कामयाब रही।
बेगम समरू की आशिकमिजाजी के भी कई किस्से मशहूर हैं मगर उनका कोई पुख्ता ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता। उसके दीवानों में फ्रांस के ली वसाउ और आयरलैंड के जार्ज थामस का खूब जिक्र आता है। बेगम समरू को अपनी ही फौज के अफसर ली वसाउ से 1793 में निकाह करने के बाद सैनिकों की बगावत का सामना करना पड़ा। बागी सैनिकों से घिर जाने पर वसाउ ने अपने सिर में गोली मार ली। बेगम समरू ने भी खंजर घोंप कर खुदकुशी की कोशिश की मगर वह इसमें कामयाब नहीं हुई।
1803 में बेगम समरू ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मुख्तारी कबूल कर ली और अपनी जागीर और अकूत जायदाद दोनों को ही बचाने में सफल रही। अब उसकी दिलचस्पी स्थापत्य की ओर हुई और उसने कई शानदार इमारतें बनवाई। दिल्ली के चांदनी चैक में मुगल बादशाह अकबर शाह से मिली जमीन पर उसने एक बेहद खूबसूरत हवेली बनवाई जिसमें अब बिजली के सामान का एशिया का सबसे बडा बाजार भागीरथ पैलेस है। मगर उसे याद किया जाता है सरधना के चर्च आफ लेडी आफ ग्रेसेस और आसपास की इमारतों के लिए जिनमें रोमन और मुगल स्थापत्य एकदूसरे के आगोश में गुंथे हुए हैं।

सरधना की हर सड़क गिरजाघर तक जाती है। किसी से पूछने के लिए रुको इससे पहले ही लोग हाथ के इशारे से उस तक का रास्ता बता देते हैं। आखिर उनके कस्बे की पहचान जो इससे जुड़ी है। सैंकड़ों पावरलूम की कभी नहीं रुकने वाली धकधक के साथ यह गिरजाघर भी उनके दिलों में हमेशा के लिए समाया हुआ है।
उत्तर भारत के इस सबसे बड़े गिरजाघर को बनाने में लगभग 11 साल और चार लाख रुपए लगे और यह 1822 में बन कर तैयार हुआ। इसके आर्किटेक्ट इटली के अंतोनियो रेगेलिनी थे और इसमें रोम के सेंट पीटर्स के अलावा मुगल स्थापत्य की छाप साफ दिखाई देती है। पहले यह गिरजाघर कैथेड्रल था मगर 1961 में इसे पोप से माइनर बेसिलिका का दर्जा मिल गया। इसे बनाने के लिए जिस जगह से मिट्टी निकाली गई वहां दो सुंदर तालाब बन गए हैं।
अहाते के गेट से गिरजाघर की दूरी तकरीबन 100 मीटर है। रास्ता आम के बगीचे को चीरता हुआ गुजरता है। इसके दोनों तरफ ईसा मसीह की सलीब यात्रा के 14 मुकामों को सफेद मूर्तियों के जरिए दिखाया गया है। रास्ता अपने दोनों हाथ फैलाए ईसा मसीह की एक मूर्ति के सामने जाकर खत्म होता है। लेकिन गिरजाघर का मुख्य दरवाजा इसके सामने नहीं है। इस दरवाजे तक पहुंचने के लिए दाहिनी ओर मु़़ड़ कर जाना होता है।
गिरजाघर को सामने से कुछ फासले से देखने पर ही उसकी मुकम्मल खूबसूरती का एहसास होता है। लगता है जैसे बेगम समरू का सादगी से भरा अभिजात हुस्न आंखों के सामने बिखरा पड़ा हो। सामने का बरामदा 18 खंभों पर टिका हुआ है। छत पर बने तीन गुंबदों में बीच वाला बड़ा है और उसके आजूबाजू वाले छोटे। पीछे से दो मीनारें आसमान में सूराख करने के लिए उचक रही हैं। गुंबदों और मीनारों पर लगे धातु के गोले और क्रास इतने साल बीत जाने के बावजूद सूरज की रोशनी में चेहरे पर सुनहरा आईना चमकाते हैं।
अंदर घुसते ही ठीक सामने एक बडा चबूतरा है जिस पर मदर मैरी अपने शिशु को गोद में लिए हैं। इसके नीचे सलीब पर ईसा मसीह की मूर्ति है। चबूतरा और उसके आसपास का हिस्सा राजस्थान से लाए गए संगमरमर से बना है। उस पर रंगीन पत्थरों से फूल उकेरे गए हैं। दोनों तरफ दो और चबूतरे हैं जिनमें से एक पर लेडी आफ ग्रेसेस और दूसरे पर ईसा मसीह की मूर्ति है। लकड़ी पर चुनींदा रंगों से बनी लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति इटली से लाकर 1957 में इस गिरजाघर में लगाई गई थी।
इन चबूतरों पर गुंबदों के रोशनदानों से छन कर आती सूरज की रोशनी में मूर्तियां और मेहराबों की पच्चीकारी चमक उठती है। गिरजाघर में संगमरमर और रंगीन पत्थरों के बेहतरीन इस्तेमाल को देख कर अचानक ही ताजमहल आंखों के सामने कौंध उठता है। बड़े चबूतरे की बाईं ओर बेगम समरू की कब्र है जिस पर 8 फीट का संगमरमर का स्मारक है जिसे इटली के मशहूर मूर्तिकार अदामो तादोलीनी ने बनाया था। इसकी चोटी पर बेगम समरू खास मुस्लिम अंदाज में बैठी है। उसके नीचे बेगम के सौतेले नाती और वारिस डेविड आक्टरलोनी डाइस सोम्ब्रे और तीन सलाहकारों की मूर्तियां हैं। सबसे नीचे खड़ी छह मूर्तियां निडरता, ज्ञान, तसल्ली और संपन्नता का प्रतीक हैं।
ईसाई बनने के बाद भी बेगम समरू तमाम जिंदगी अपनी इस्लामी जड़ों से नाता नहीं तोड़ सकी। जिस्म पर दिल्ली की नजाकत ओढ़े हिन्दुस्तान की इस पहली ईसाई जागीरदार का दिल किसी सूफी फकीर की तरह था। क्रिसमस के मौके पर सरधना में होने वाले तीन दिनों के जश्न में भोज के अलावा नाचगाना, आतिशबाजी और मुशायरा भी शामिल रहता था। फरसू के नाम से लिखने वाले फ्रांज गोटलिएब कोहेन समेत उसकी फौज के तीन यूरोपीय कमांडर तो उर्दू में शायरी भी करने लगे थे।
बेगम समरू की जागीर में हिंदू , मुस्लिम और ईसाई के बीच कोई फर्क नहीं था। क्रिसमस के अलावा ईद, दशहरा, दिवाली और होली का त्यौहार भी धूमधाम से मनाया जाता था। सरधना का गिरजाघर अब भी मजहबों के बीच भाईचारे का उसका पैगाम देता है। इसमें हर मजहब के लोग लेडी आफ ग्रेसेस की मूर्ति के आगे सिर झुका कर मन्नत मांगने आते हैं।
गिरजाघर के बगल में जिस इमारत में कभी बिशप रहा करते थे वह अब लड़कियों का स्कूल है। अहाते के ठीक सामने बने बेगम के पुराने महल में अब सेंट जोंस सेमीनरी चलती है। यह महल रेनहार्ट को सरधना की जागीर मिलने से पहले का है। बेगम समरू सरधना आने से लेकर अपने इंतकाल के कुछ पहले तक इसी महल में रही। उसने अपने लिए जो नया महल बनवाना शुरू किया था वह उसके गुजरने से एक साल पहले ही तैयार हो सका। मुगल शैली में बने पुराने महल का बरामदा काफी शानदार है। वक्त के साथ की गई तब्दीलियों के बावजूद इस महल के पुराने वैभव को महसूस किया जा सकता है। महल के तहखाने में कमरे बने हैं जिनमें गर्मी के दिनों में बेगम और उसका परिवार रहा करता था। लेकिन अब सरधना में जमीन में पानी का स्तर बढ़ जाने की वजह से इनका इस्तेमाल नहीं किया जाता। मानसून में इन कमरों में पानी भर जाता है और सीलन तो समूचे साल ही बनी रहती है।
नए महल में अब इंटर कालेज चलता है। यूनानी शैली में बने इस महल में बेगम के गुसलखाने खास तौर से देखने लायक हैं। इनकी संगमरमर की दीवारों पर नफीस पच्चीकारी है। लेडी फारेस्टर अस्पताल और अंतोन कोठी बेगम से सीधे तौर पर रिश्ता नहीं रखने के बावजूद उनकी यादों से जुड़े हैं। अस्पताल को डाइस की बीवी ने बेगम समरू के धन से बनवाया था और रेगेलिनी के बंगले अंतोन कोठी का इस्तेमाल चर्च से जुडे लोगों की रिहाइशके लिए किया जाता है।
सरधना की रूह तक उतरने के लिए इन सब के अलावा कैथोलिक कब्रगाह पर भी एक नजर डालना जरूरी है। इसमें रेनहार्ट और रेगेलिनी के परिवारवालों के अलावा बेगम का दूसरा शौहर वसाउ भी दफन है। नजदीक ही कर्नल जान रेमी सालेउर की कब्र भी है जिसने 1795 में सैनिकों की बगावत के दौरान बेगम समरू का साथ दिया था। बेगम के खानदान के लोगों की कब्रों पर बने मकबरों को देख कर लगता है कि किसी जमाने में वे बहुत ही खूबसूरत रहे होंगे मगर अब उनकी हालत एकदम खस्ता है।
कब्रों के अंदर सिर्फ मुरदे नहीं सोते बल्कि जिंदगियों से जुड़ी कई जिंदा कहानियां भी दफन होती हैं। लेकिन इन कब्रों में से ज्यादातर पर लिखी इबारत को पढ़ पाना अब मुमकिन नहीं है। इन टूटीफूटी कब्रों के बीच से गुजरते हुए जिंदगी की नश्वरता का आभास होता है। लेकिन इस सचाई से रूबरू कराने के लिए आप ईश्वर के बजाय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का शुक्रिया अदा कर सकते हैं जिस पर कब्रिस्तान की देखभाल की जिम्मेदारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में इन मकबरों का वजूद कम से कम इस खस्ता हाल में भी बना रहेगा।
संडे नई दुनिया में 12 अक्टूबर 2008 को प्रकाशित