Wednesday, May 15, 2013

गदर (11 मई 1857) की सालगिरह पर


दिल्ली को अब भी है बहादुर शाह जफर का इंतजार 


(पार्थिव कुमार)


इतना है बदनसीब जफर
दफ्न के लिए 
दो गज जमीन भी न मिली
कू ए यार में !

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की ख्वाहिश थी कि मौत के बाद उन्हें अपने शहर देहली में ही दफनाया जाए। इसके लिए उन्होंने  तेरहवीं सदी के मशहूर सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के नजदीक जगह भी तय कर रखी थी। मगर अंग्रेज नहीं चाहते थे कि उनकी औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ पहली बगावत की निशानी जफर मौत के बाद भी हिंदुस्तानियों की नजरों के सामने रहें। इसलिए उन्होंने जफर की यह तमन्ना पूरी नहीं होने दी। लेकिन हैरानी की बात है कि महरौली में संगमरमर की जालीदार दीवारों से घिरा जफर का सर्दगाह देश के आजाद होने के 65 साल बाद भी खाली है। 

सिराजुद्दीन मोहम्मद बहादुर शाह का तखल्लुस भले ही जफर (विजय) रहा हो,  बदनसीबी ने उम्र भर उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपने वालिद अकबर सानी के 1837 में इंतकाल के बाद जब उन्होंने दिल्ली का तख्त संभाला, मुगलिया सलतनत लाल किले की चहारदीवारी के अंदर तक ही सिमट कर रह गई थी। असली सियासी और फौजी ताकत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में जा चुकी थी। बादशाह को कंपनी के थोड़े से पेंशन पर गुजारा करना पड़ रहा था और उसे टैक्स वसूलने और फौज रखने के मामूली हक ही दिए गए थे।

1857 में गदर की नाकामी के बाद जफर अगर अंग्रेजों के हाथ नहीं आते तो हिंदुस्तान की तस्वीर शायद कुछ और ही होती। मगर जफर के नजदीकियों ने ही उनके साथ गद्दारी कर दी। जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर जफर को पराए देश में अंग्रेजों के कब्जे में काफी तकलीफें उठानी पड़ीं और मौत के बाद भी उन्हें अपने मुल्क की मिट्टी नसीब नहीं हो सकी।   

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सिपाहियों की बगावत के समय जफर 78 साल के हो चुके थे। वह किसी फौजी मुहिम की सदारत करने की हालत में नहीं थे। लेकिन मजहबी एकता के हिमायती जफर में हिंदुओं और मुसलमानों को मुश्किल हालात में एकजुट रखने की कुव्वत थी। इसीलिए बागी सिपाहियों ने 11 मई 1857 को दिल्ली पहुंचने के बाद उन्हें अपना नेता चुना। आजादी की पहली लड़ाई भले की नाकाम रही हो मगर उनकी अगुवाई में हिंदू और मुस्लिम सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ कंधे से कंधा मिला कर लड़े और दिल्ली की आबादी ने एकजुट होकर उनका साथ दिया। 

जफर की मां लाल बाई हिंदू राजपूत थीं। लिहाजा उन्हें हिंदू और इस्लाम दोनों मजहबों को नजदीक से जानने का मौका मिला। वह मानते थे कि ये दोनों ही मजहब एकदूसरे से प्रेम करना सिखाते हैं। उनके विचारों का दिल्ली के समाज पर बहुत असर पड़ा। जफर के समय में सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हिंदुओं का तांता लगा रहता था। मुसलमान और जफर खुद भी हिंदुओं के त्यौहारों में खूब बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। 

जफर हिंदुओं की तरह ही गंगा जल पीते थे। होली के त्यौहार पर वह सात कुओं के पानी से नहाने के बाद दरबारियों, बेगमों और हरम के लोगों के साथ रंग खेला करते थे। रामलीला देखने में उनकी खास दिलचस्पी थी और दशहरे के मौके पर वह हिंदू दरबारियों को नजराने दिया करते थे। दिवाली पर वह खुद को अनाज, सोना और कौडि़यों से तुलवाते और यह सारा सामान गरीबों में बंटवा देते।  

14 सितंबर 1857 को दिल्ली पर फिर से अंग्रेजों का कब्जा होने के बाद जफर के सामने लाल किला छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं था। वह 17 सितंबर की रात दरिया जुमना में कश्ती पर सवार होकर महरौली के लिए निकल पड़े। उनका पहला पड़ाव निजामुद्दीन औलिया की दरगाह थी जहां पहुंच कर उन्होंने सदियों से सहेज कर रखी गई अपने पुरखों की निशानियों को पीरजादाओं को सौंप दिया जिनमें पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी के बाल भी शामिल थे। 

जफर ने दरगाह पर कलमा पढ़ने के बाद पीरजादाओं की दी हुई ताहिरी खाकर अपनी भूख मिटाई। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। उन्होंने भरे गले से कहा, ‘‘मुगल सलतनत का चिराग बुझने वाला है। कुछ ही घंटों में उसकी लौ खत्म हो जाएगी। जब मुझे यह पता है तो और खूनखराबा क्यों किया जाए। इसीलिए मैं लाल किले को छोड़ आया। अब यह देश अल्लाह के हवाले है और वह जिसे चाहे उसे इसकी बागडोर दे।’’

इसके बाद जफर महरौली के लिए चल पड़े। अभी उनकी पालकी कुछ ही दूर पहुंची थी जब उन्हें अपना समधी मिर्जा इलाही बख्श आता दिखाई दिया। इलाही बख्श ने बताया कि महरौली के रास्ते में गूजरों के गिरोह लूटपाट कर रहे हैं। जफर को क्या पता था कि इलाही बख्श अंग्रेजों से मिला हुआ है और उसे बादशाह को महरौली पहुंचने से रोकने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उन्होंने वापस निजामुद्दीन दरगाह की ओर लौटने का फैसला कर लिया। 

निजामुद्दीन दरगाह पहुंचने के बाद जफर अपनी छोटी बेगम जीनत महल का इंतजार करते रहे जो खुद भी अंग्रेजों के साथ हो गई थी। फिर दोनों ने नजदीक ही हुमायूं के मकबरे में जाकर पनाह ली। चारों तरफ से घिर चुके जफर के पास हथियार डालने के अलावा कोई चारा नहीं था। इक्कीस सितंबर को उन्होंने खुद को ब्रिटिश कमांडर विलियम हडसन के हवाले कर दिया।  

दिल्ली को फिर से अपने कब्जे में लेने के बाद अंग्रेजों ने जबर्दस्त तबाही मचाई। उन्होंने हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया। चांदनी चैक की हर गली के सिरे पर फांसी का तख्ता लगा दिया गया था। अकेले कूचा चेलान में कुछ ही घंटों में तकरीबन 1500 लोग मारे गए। जो लोग बच गए उन्हें शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। अपनी शानोशौकत और रंगीन शामों के लिए मशहूर शाहजहानाबाद की हर बड़ी इमारत को जमींदोज कर दिया गया। 

जफर को हुमायूं के मकबरे से लाने के बाद लाल कुआं इलाके में जीनत महल की हवेली में रखा गया। अंग्रेजों ने उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया। उस समय के सिविल कमिश्नर सांडर्स की पत्नी मेटिल्डा ने लिखा है, ‘आखिरी मुगल बादशाह दालान में एक टूटी सी चारपाई पर सिर झुकाए चुपचाप बैठा था।’ एक ब्रिटिश सैनिक के मुताबिक ‘बूढ़ा बादशाह किसी खिदमतगार की तरह दीख रहा था। उससे मिलने के लिए जूते उतारने की जरूरत नहीं थी। उसे हर तमाशबीन को सलाम करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। एक सैनिक ने तो आगे बढ़ कर उसकी लंबी सफेद दाढ़ी ही खींच ली।’

बाद में जफर को उनके हरम की 82 औरतों, 47 बच्चों और दो हिजड़ों के साथ लाल किले में कैद कर लिया गया। जफर को एक तंग और गंदी कोठरी में रखा गया। उन्हें भोजन के लिए रोजाना सिर्फ दो आने दिए जाते थे। हकीम, नाई और धोबी तक को उनसे मिलने की इजाजत नहीं थी। ब्रिटिश सैनिकों को बेगमों और शहजादियों को बेपर्दा करने में मजा आता था और वे जब मन करता जनाना कोठरियों में घुस जाया करते थे। 

जफर बेशक हिंदुस्तान के बादशाह नहीं रहे थे मगर उनका खौफ अंग्रेजों के दिलों में बना हुआ था। नजरों के सामने और दिलो दिमाग में उनकी मौजूदगी हिंदुस्तानियों को अंग्रेजों के खिलाफ कभी भी भड़का सकती थी। लिहाजा चालीस दिनों तक चले मुकदमे में उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ बगावत, 49 ब्रिटिश नागरिकों के कत्ल और बागियों की मदद करने का गुनहगार करार देकर जीनत महल और परिवार के बचे खुचे सदस्यों के साथ रंगून निर्वासित कर दिया गया। 

रंगून में जफर को एक अदने से ब्रिटिश अफसर के गैराज में रखा गया। वहीं सात नवंबर 1862 को इंतकाल के बाद उन्हें श्वेदागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया। अंग्रेजों ने उनकी कब्र को बांस से घेर कर उस पर घास उगा दी ताकि उसे खोजा नहीं जा सके। जफर की असली कब्र का पता 1991 में लगा जहां वह जीनत महल और अपनी पोती रौनक जमानी के साथ दफन हैं। 

जफर अपने जमाने के जानेमाने शायर भी थे। उनकी जो शायरी गदर के दौरान बर्बाद होने से बच गई वह ‘कुल्लियात ए जफर’ में संकलित हैं। उनके दरबार में शायरी की महफिलें सजती रहती थीं जिनमें गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे मशहूर शायरों का आना जाना था।

सूफियों ने दिल्ली को सादगी, भाईचारे, प्रेम और करुणा की जो तहजीब दी है जफर उसकी निशानी थे। बादशाह बनने से पहले वह दरवेशों की तरह ही सादे कपड़े पहनते और सादा जिंदगी जीते थे। उनकी शायरी में भी सूफीवाद का असर साफ दिखाई देता है। अकबर सानी के जमाने में शुरू हिंदू मुस्लिम एकता का त्यौहार ‘फूल वालों की सैर’ जफर के समय में खूब धूमधाम से मनाया जाता था। जफर तीन दिनों के इस त्यौहार के समय कुतुब साहब की दरगाह के नजदीक बने अपने जफर महल में हफ्ते भर के लिए आ जाते थे। इस त्यौहार के दौरान महरौली के योगमाया मंदिर में फूलों से बना पंखा और कुतुब साहब की दरगाह में फूलों की चादर चढ़ाई जाती है। फूल वालों की सैर अब भी दिल्ली की रंगबिरंगी तहजीब का हिस्सा बनी हुई है। 

2006 में जब देश 1857 के गदर की 150 वीं सालगिरह मनाने की तैयारी कर रहा था उस समय इस सिलसिले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सदारत में एक बैठक हुई। सियासी नेताओं, आलिमों, कलाकारों और पत्रकारों की इस बैठक में गांधीवादी निर्मला देशपांडे ने जफर के अवशेषों को लाने और महरौली में उनका स्मारक बनाने का विचार रखा। उनके इस विचार से बैठक में मौजूद लगभग सभी जानीमानी हस्तियों की रजामंदी थी मगर इस पर आज तक अमल नहीं किया गया।

मुट्ठी भर मिट्टी से इतिहास को नहीं बदला जा सकता। लेकिन जफर की आखिरी ख्वाहिश को पूरी कर हम उस शख्स को इज्जत अता करेंगे जिसने हिंदुस्तानियों के दिलों में गुलामी से आजादी की चाहत को रोशन किया। लाल किले पर तिरंगे के लहराने के पीछे कुर्बानियों की जो दास्तान है उसमें एक बड़ा किरदार जफर का भी है।

(दैनिक अमर उजाला में 11 मई 2013 को प्रकाशित)