जार्ज एवरेस्ट की खस्ताहाल यादगार
लेकिन लगभग 200 साल पुरानी इस इमारत की मौजूदा हालत को देख कर अफसोस भी होता है। इसका बाईं ओर का एक बड़ा हिस्सा ढह चुका है। खिड़कियों के अलावा दरवाजों के पल्ले भी गायब हैं। रसोईघर की फर्श और दीवारों पर की टाइल्स टूटी हुई हैं। कोठी के सामने जमीन के अंदर बनी पानी की गहरी टंकियां खुली हुई हैं जिनमें कभी भी कोई गिर सकता है। आसपास के गांवों के मवेशी इस इमारत में पनाह लेते हैं और इसके कमरों में उनके मलमूत्र की बदबू छाई रहती है।
पार्क एस्टेट को बदरंग बनाने में आसपास के गांवों के लोगों ने भी सैलानियों का पूरा हाथ बटाया है। इसकी दीवारों पर सैंकड़ों नाम और मोहब्बत के पैगाम खुरचे हुए हैं। कोठी के अंदर ही बच्चे खाने पीने की चीजें बेचते हैं। उन्होंने दीवारों पर कोयले से अपनी रेट लिस्ट कुरेद रखी है। सफाई का कोई इंतजाम नहीं होने के कारण कमरों में प्लास्टिक की प्लेटें और गिलास, पानी की खाली बोतलें तथा बचा खुचा खाना बिखरा रहता है।
दुनिया की सबसे अूंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट का नामकरण सर जार्ज के नाम पर ही किया गया था। उनकी यह कोठी और लैबोरेटरी ऐतिहासिक तौर पर बहुत अहमियत रखती है। भारतीय उपमहाद्वीप को दो हिस्सों में बांटने वाला 78 वां मेरीडियन इस इमारत के बीचों बीच से होकर गुजरता है।
जार्ज एवरेस्ट का जन्म 1790 में हुआ था और 1818 में वह ब्रिटेन की फौज में आ गए। बाद में वह 1806 में उपमहाद्वीप का त्रिकोणमितीय सर्वे आरंभ करने वाले विलियम लैम्बटन के सहयोगी बने। लैम्बटन की 1823 में मौत के बाद सर जार्ज को सर्वे का सुपरिंटेंडेंट बनाया गया और 1830 में वह हिन्दुस्तान के पहले सर्वेयर जनरल बने। वह 1843 में रिटायर होने के बाद ब्रिटेन चले गए और लंदन में 1866 में उनका निधन हो गया।
173 एकड़ में फैले पार्क एस्टेट में सर जार्ज 1830 से 1843 तक रहे और काम किया तथा बाद में इसे किराए पर दे दिया। इसके बाद यह कोठी मशहूर स्किनर परिवार समेत कई हाथों से गुजरती हुई मसूरी के शाह घराने के पास आई और अब इस पर उत्तराखंड सरकार का अधिकार है। राज्य सरकार ने कई साल पहले सर्वे आफ इंडिया के सहयोग से इसमें एक म्यूजियम खोलने की योजना बनाई थी जिस पर अब तक अमल नहीं किया गया।
किसी ऐतिहासिक धरोहर को बचाए रखने का सबसे अच्छा तरीका स्थानीय लोगों को उसकी अहमियत से वाकिफ कराना और हिफाजत के काम में उन्हें सहयोगी बनाना है। अगर पार्क एस्टेट के आसपास के गांवों के लोगों को इसका महत्व बताया जाए तो वे इसे नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और सैलानियों को भी ऐसा करने से रोकेंगे। मगर इस ओर सरकार की उदासीनता की वजह से सर जार्ज की यह बेहतरीन यादगार जमींदोज होने के कगार पर खड़ी है।
नोटः पार्क एस्टेट जाने के लिए देहरादून से जाते हुए मसूरी से पांच किलोमीटर पहले हाथी पांव की ओर बाएं मुड़ें। जीप से इस इमारत तक पहुंचना मुमकिन है मगर हाथी पांव से विशिंग वेल होते हुए पैदल जाना बेहतर होगा। पार्क एस्टेट के नजदीक ईको प्वाइंट और बिनोग वन्यजीव अभ्यारण्य अन्य दर्शनीय स्थल हैं।
पार्थिव कुमार
कई बार कोई जगह यूं ही बहुत अच्छी लगने लगती है। पार्क एस्टेट के साथ मेरा लगाव भी कुछ ऐसा ही है। जब भी मसूरी या इसके आसपास से गुजरना होता है हिन्दुस्तान के पहले सर्वेयर जनरल जार्ज एवरेस्ट की इस खस्ताहाल कोठी तक जरूर जाता हूं। इसके सामने घास की हरी चादर पर घंटों लेटे रहना और हिमालय को निहारना काफी सुकून देता है। आसमान साफ हो तो पल्लों को खुद से जुदा कर चुकी इसकी खिड़कियों से नीचे दून घाटी साफ नजर आती है। बारिश होने वाली हो तो बादल आपके इर्दगिर्द से गुजर रहे होते हैं और हवा में चीड़ की भीनी खुशबू फैल जाती है। लेकिन लगभग 200 साल पुरानी इस इमारत की मौजूदा हालत को देख कर अफसोस भी होता है। इसका बाईं ओर का एक बड़ा हिस्सा ढह चुका है। खिड़कियों के अलावा दरवाजों के पल्ले भी गायब हैं। रसोईघर की फर्श और दीवारों पर की टाइल्स टूटी हुई हैं। कोठी के सामने जमीन के अंदर बनी पानी की गहरी टंकियां खुली हुई हैं जिनमें कभी भी कोई गिर सकता है। आसपास के गांवों के मवेशी इस इमारत में पनाह लेते हैं और इसके कमरों में उनके मलमूत्र की बदबू छाई रहती है।
पार्क एस्टेट को बदरंग बनाने में आसपास के गांवों के लोगों ने भी सैलानियों का पूरा हाथ बटाया है। इसकी दीवारों पर सैंकड़ों नाम और मोहब्बत के पैगाम खुरचे हुए हैं। कोठी के अंदर ही बच्चे खाने पीने की चीजें बेचते हैं। उन्होंने दीवारों पर कोयले से अपनी रेट लिस्ट कुरेद रखी है। सफाई का कोई इंतजाम नहीं होने के कारण कमरों में प्लास्टिक की प्लेटें और गिलास, पानी की खाली बोतलें तथा बचा खुचा खाना बिखरा रहता है।
दुनिया की सबसे अूंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट का नामकरण सर जार्ज के नाम पर ही किया गया था। उनकी यह कोठी और लैबोरेटरी ऐतिहासिक तौर पर बहुत अहमियत रखती है। भारतीय उपमहाद्वीप को दो हिस्सों में बांटने वाला 78 वां मेरीडियन इस इमारत के बीचों बीच से होकर गुजरता है।
जार्ज एवरेस्ट का जन्म 1790 में हुआ था और 1818 में वह ब्रिटेन की फौज में आ गए। बाद में वह 1806 में उपमहाद्वीप का त्रिकोणमितीय सर्वे आरंभ करने वाले विलियम लैम्बटन के सहयोगी बने। लैम्बटन की 1823 में मौत के बाद सर जार्ज को सर्वे का सुपरिंटेंडेंट बनाया गया और 1830 में वह हिन्दुस्तान के पहले सर्वेयर जनरल बने। वह 1843 में रिटायर होने के बाद ब्रिटेन चले गए और लंदन में 1866 में उनका निधन हो गया।
173 एकड़ में फैले पार्क एस्टेट में सर जार्ज 1830 से 1843 तक रहे और काम किया तथा बाद में इसे किराए पर दे दिया। इसके बाद यह कोठी मशहूर स्किनर परिवार समेत कई हाथों से गुजरती हुई मसूरी के शाह घराने के पास आई और अब इस पर उत्तराखंड सरकार का अधिकार है। राज्य सरकार ने कई साल पहले सर्वे आफ इंडिया के सहयोग से इसमें एक म्यूजियम खोलने की योजना बनाई थी जिस पर अब तक अमल नहीं किया गया।
किसी ऐतिहासिक धरोहर को बचाए रखने का सबसे अच्छा तरीका स्थानीय लोगों को उसकी अहमियत से वाकिफ कराना और हिफाजत के काम में उन्हें सहयोगी बनाना है। अगर पार्क एस्टेट के आसपास के गांवों के लोगों को इसका महत्व बताया जाए तो वे इसे नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और सैलानियों को भी ऐसा करने से रोकेंगे। मगर इस ओर सरकार की उदासीनता की वजह से सर जार्ज की यह बेहतरीन यादगार जमींदोज होने के कगार पर खड़ी है।
नोटः पार्क एस्टेट जाने के लिए देहरादून से जाते हुए मसूरी से पांच किलोमीटर पहले हाथी पांव की ओर बाएं मुड़ें। जीप से इस इमारत तक पहुंचना मुमकिन है मगर हाथी पांव से विशिंग वेल होते हुए पैदल जाना बेहतर होगा। पार्क एस्टेट के नजदीक ईको प्वाइंट और बिनोग वन्यजीव अभ्यारण्य अन्य दर्शनीय स्थल हैं।