चोपता की सादगी में है जादू
सुविधा कुमरा
दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैंने चेहरे से कंबल हटा कर खिड़की से झांकने की कोशिश की। बाहर अब भी अंधेरा था। बिस्तर से निकलने की इच्छा जरा भी नहीं थी मगर दरवाजा खोलना पड़ा। सर्द हवा का एक झोंका पल भर में समूचे कमरे को सिहरा गया। हाथ में थरमस उठाए जगत सिंह सामने खड़ा था।
‘‘दीदी, आपकी चाय।’’
मैंने कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डाली और बोली, ‘‘जगत सिंह, मैंने तुम्हें साढ़े छह बजे बुलाया था। अभी तो सिर्फ पांच बजे हैं।’’
‘‘मेरे पास घड़ी नहीं है। खैर, कोई बात नहीं। आप आराम से तैयार हो लीजिए। घोड़ा बाहर आपका इंतजार कर रहा है।’’
जगत सिंह के हाथ से थरमस लेते हुए मैं उसकी चालाकी पर मुस्कराए बिना नहीं रह सकी। बेशक उसके पास घड़ी नहीं थी। फिर भी उसे अच्छी तरह पता था कि अभी साढ़े छह नहीं बजे हैं। वह पौ फटने से पहले इसलिए चला आया था कि दिन भर में तुंगनाथ तक के तीन चक्कर लगा कर अपने मालिक को खुश कर सके।
मैं चोपता पिछली शाम ही पहुंच गई थी। गेस्ट हाउस में सामान डाल कर कुछ देर आराम किया। इसके बाद बिस्किट का एक पैकेट और थरमस में चाय लेकर दूर तक फैले बुग्याल के एक कोने में हरी घास पर पेड़ से पीठ टिका कर बैठ गई। ढलते सूरज की रोशनी में सामने केदारनाथ और चौखंभा की चोटियों पर बर्फ सोने की तरह चमक रही थी। थोड़ी ही दूर पर पहाड़ी चूहों का एक जोड़ा मेरी मौजूदगी से बेखबर लुकाछिपी खेल रहा था।
थरमस का ढक्कन खोल उसमें चाय ढाल ही रही थी कि 13-14 साल का एक लड़का सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘दीदी, घोड़ा चाहिए?’’
‘‘हां, लेकिन अभी नहीं। कल सुबह साढ़े छह बजे।’’
‘‘चार बजे चलें तो सूरज उगने के समय चंद्रशिला से नंदा देवी चोटी बहुत सुंदर दीखती है। बाद में तो बादलों से बर्फ ढंक जाती है।’’
‘‘लेकिन इतनी सुबह उठना मेरे बस का नहीं है।’’
मैंने बिस्किट का पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया। वह सामने बैठ कर उसमें से बिस्किट खाने लगा। मैंने पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘जगत सिंह।’’
‘‘कहां रहते हो?’’
‘‘सारा गांव में।’’
‘‘स्कूल जाते हो?’’
‘‘हां। आठवीं में पढ़ता हूं। घोड़ा मैं सिर्फ गरमी की छुट्टियों में चलाता हूं। समूचे महीने के दो हजार रुपए मिलते हैं। उनसे पढ़ाई का खर्च निकल जाता है। मैं कोई नशा नहीं करता क्योंकि मुझे सेहत बनानी है और बड़ा होकर फौज में भर्ती होना है।’’
‘‘तुम्हारी तरह कितने लोग यहां घोड़ा चलाते हैं?’’
‘‘कुल 20 होंगे जिनमें से आधे बच्चे हैं। सभी बच्चे स्कूल जाते हैं। मेरी तरह वे भी घोड़ा सिर्फ गरमी की छुट्टियों में चलाते हैं।’’
जगत सिंह ने बिस्किट का पैकेट खत्म करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं। नीचे बाजार में भाई मेरा इंतजार कर रहा है। सुबह समय पर तैयार हो जाइएगा। अगर थरमस मुझे दे दें तो सुबह आपके लिए चाय भी लेता आउंगा।’’
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में उखीमठ से 37 किलोमीटर दूर समंदर की सतह से 9515 फीट की ऊंचाई पर बसे चोपता को गांव और कस्बा में से किसी भी खांचे में नहीं डाल सकते। यह सिर्फ एक पड़ाव है जहां केदारनाथ और बदरीनाथ के बीच चलने वाली गाड़ियां सुस्ताने के लिए रुकती हैं। यहां कोई मकान नहीं है। सड़क के किनारे कुछेक ढाबे और चाय की दुकानें हैं। नजदीक ही एक पहाड़ी पर बने टिन की छत वाले कमरों को आप चाहें तो मेरी तरह ही गेस्ट हाउस कह सकते हैं।
चोपता में बिजली अब तक नहीं पहुंची। गेस्ट हाउस के कमरों को रोशन करने के लिए सोलर पैनल लगे हैं। सूरज ठीकठाक निकल गया तो एक इमरजेंसी लाइट चार - पांच घंटों तक जल जाती है। अगर रात में कुछ पढ़ने या लिखने की तबीयत कर जाए तो मोमबत्ती का ही सहारा है। तुंगनाथ और उसके आगे चंद्रशिला के लिए पदयात्रा चोपता से ही शुरू होती है। मगर केदारनाथ, मध्य महेश्वर, तुंगनाथ, कपालेश्वर और रुद्रनाथ की पंच केदार यात्रा करने वाले तीर्थयात्री कम ही होते हैं। अधिकतर तीर्थयात्री चार धाम की यात्रा करते हैं। वे यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ से सीधे बदरीनाथ के लिए रवाना हो जाते हैं। भीड़भाड़ नहीं होने की वजह से ही गढ़वाल के सबसे सुंदर इलाकों में से एक चोपता की कुदरती खूबसूरती और शांति अब भी बरकरार है। बुरांश और बांज के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए आप कई तरह के पंछियों की आवाजें एक साथ सुन सकते हैं।
विजय दशमी के बाद तुंगनाथ मंदिर बंद होते ही चोपता में वीरानी छा जाती है। तुंगनाथ देवता के मक्कूमठ जाने के साथ ही यहां के लोग भी अपने - अपने गांव रवाना हो जाते हैं। लगभग चार महीनों तक बर्फ की चादर ओढ़े समूचा इलाका सन्नाटे में डूबा रहता है। बैसाखी के बाद तुंगनाथ के कपाट खुलने से कुछ पहले चोपता में रौनक लौट आती है। चाय की दुकानों पर केतलियों से भाप उठने लगती है और ढाबे सज जाते हैं। सफाई और रंगरोगन के बाद गेस्ट हाउसों के दरवाजे सैलानियों का इंतजार करने लगते हैं।
पहाड़ों से खिसकते अंधेरे ने बुग्याल को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया था। मैं सरदी से ठिठुरने लगी थी। चोपता में रात उतरने के बाद करने को कुछ भी नहीं होता। चारों तरफ फैली स्याही के बीच ढाबों में धुंधली सी रोशनी टिमटिमाती रहती है। गेस्ट हाउस पहुंच कर गपशप के लिए पड़ोस वाले कमरे में चली गई जहां फ्रांस का एक जोड़ा टिका हुआ था। कोलकाता से आई पांच घुमक्कड़ों की टोली वहां पहले से ही मौजूदा थी और अड्डा जमा हुआ था। बात उमा प्रसाद मुखोपाध्याय की हिमालय यात्राओं की चल पड़ी तो चोपता के मंगल सिंह का नाम का जिक्र भी आया। बंगला के मशहूर यायावर लेखक उमा प्रसाद 60 के दशक में हिमालय की अपनी पदयात्रा के दौरान मंगल सिंह के घर में कई बार रुके थे।
ढाबे में रात के खाने के बाद मैंने उसके मालिक से पूछा, ‘‘काफी पहले यहां एक मंगल सिंह हुआ करते थे। उनके बारे में जानते हैं आप?’’
ढाबे के मालिक ने मुस्करा कर जवाब दिया, ‘‘मंगल सिंह अब भी यहीं रहते हैं। सामने पहाड़ी पर चाय की उनकी दुकान है। उमर काफी हो चुकी है मगर दिन भर अपनी दुकान पर मिलते हैं। खास कर बंगाल से आने वाले यात्री उनसे जरूर मुलाकात करते हैं।’’
अपने कमरे में पहुंच कर बिस्तर में घुसते हुए मैंने सोचा, ‘कल शाम समय निकाल कर मंगल सिंह से मिलूंगी और उनके अनुभवों का साझीदार बनूंगी।’
तैयार होकर कमरे से बाहर निकली तो जगत सिंह अपने घोड़े की जीन कसने में लगा हुआ था। सूरज निकलने में अभी कुछ समय बाकी था। घास पर ओस की बूंदे चमक रही थीं और केदारनाथ और चौखंभा की चोटियों पर चांदी का वर्क चढ़ा था। मैं बिना देर किए घोड़े पर सवार हो गई और हम तुंगनाथ के सफर पर निकल पड़े।
12074 फीट की ऊंचाई पर बसे तुंगनाथ तक पहुंचने के लिए चार किलोमीटर तक खड़ी चढाई है। पैदल चलें तो घुटनों और फेफड़ों का पूरा इम्तहान हो जाता है। घोड़े पर चलना भी कोई सुखद नहीं है। उसके पैर कई बार लड़खड़ाए और मेरे जिस्म का हरेक जोड़ हिल गया। लेकिन आसपास के दिलकश नजारे तकलीफ का एहसास जरा भी नहीं होने देते। रास्ते में हर किलोमीटर पर बने ढाबों में रुक कर आप सांसों को तरतीब और देह को कुछ आराम दे सकते हैं।
बर्फ से ढंकी केदारनाथ और चौखंभा की चोटियां समूचे रास्ते में हमारे साथ थीं। हिम रेखा चोपता से तुंगनाथ के रास्ते में जितनी साफ है उतनी शायद ही कहीं होगी। एक ऊंचाई तक पहुंचते ही पेड़ अचानक गायब हो जाते हैं। बोर्ड तो नहीं लगा मगर लगता है जैसे कुदरत ने फरमान जारी कर दिया हो - इस लकीर के आगे कोई पेड़ नहीं होगा। इसके आगे सिर्फ सब्ज घास फैली है जिस पर इधर उधर चट्टानें और झाड़ियां टंकी हुई हैं।
दो घंटों के अंदर मैं तुंगनाथ पहुंच चुकी थी। मैंने रास्ते में तय कर लिया था कि लौटते समय घोड़े की सवारी करने के बजाय पैदल चलूंगी। मैंने 100 रुपए के दो नोट जगत सिंह की ओर बढ़ा दिए। उसने आग्रह किया, ‘‘दीदी, घोड़े को खिलाने के लिए कुछ दे दो।’’ मैंने 100 रुपए का एक और नोट उसकी हथेली पर रख दिया। मुझे पता था कि इसमें से घोड़े को कुछ नहीं मिलना मगर जगत सिंह के चेहरे पर मुस्कान देख कर अच्छा लगा।
तुंगनाथ पंच केदारों में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर है। पत्थर के खूबसूरत मंदिर के दरवाजे पर शिव की सवारी नंदी खड़ा है। अंदर स्वयंभू भुजा के प्रतीक के तौर पर एक पत्थर है। किंवदंतियों के अनुसार विष्णु ने इसी जगह तपस्या के बाद सुदर्शन चक्र हासिल किया था। इस छोटे से मंदिर परिसर में शिव के विभिन्न रूपों और उनके समूचे परिवार की मूर्तियां हैं।
मैं मंदिर का चक्कर लगाने के बाद सुस्ताने के लिए बैठी ही थी कि एक पुजारी आकर बोला, ‘‘बुखार की कोई दवा हो तो दे दीजिए।’’ मैंने पर्स से क्रोसिन की चार गोलियां निकाल कर उसे थमा दीं। अगले ही पल मेरे इर्दगिर्द कई लोग जमा हो गए। किसी को बुखार है तो किसी को सिरदर्द। किसी को जुखाम है तो किसी के दस्त नहीं रुक रहे। मैंने जरूरत के वक्त के लिए रखी दवा की अपनी पोटली निकाली और अपने विवेक से उन्हें गोलियां बांटने लगी। सबसे नजदीक का दवाखाना कम से कम 35 किलोमीटर दूर होने के कारण तुंगनाथ में दवा सबसे बेशकीमती चीज है।
तुंगनाथ से चंद्रशिला की डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई इस यात्रा का सबसे मुश्किल हिस्सा है। इस रास्ते पर घोड़े नहीं चलते। पैदल ही जाना होता है। इसीलिए समंदर के तल से 13124 फीट ऊंची चंद्रशिला तक बहुत कम सैलानी जाते हैं। तुंगनाथ से आगे जाने की हिम्मत जुटाने वालों में से भी काफी बीच रास्ते से ही लौट आते हैं। चारों ओर फैली घास के बीच पगडंडी पर चलते हुए जैसे - जैसे आप ऊपर पहुंचते हैं आक्सीजन की कमी साफ महसूस होने लगती है। मांसपेशियां थकने लगती हैं और फेफड़ों को अपनी पूरी ताकत लगा देनी होती है। लेकिन घास पर बिखरे रंगबिरंगे फूल आपको आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। इस समूचे इलाके में जंगली फूलों की तकरीबन 400 प्रजातियां हैं।
मैं पुणे से ट्रेकिंग के लिए खास तौर से आए युवाओं के एक दल में शामिल हो गई। उनका गाइड वास्तव में बेहद उत्साही था। थक हार कर बीच से ही लौटने की सोच रहे हम मुसाफिरों को वह लगातार आगे बढ़ने का हौसला देता रहा। घंटा भर बाद हम चोटी पर खड़े थे। वहां पहुंच कर हमें उतनी ही खुशी हुई जितनी एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोरगे ने माउंट एवरेस्ट पर पैर रखने के बाद महसूस की होगी। हम जोर से चिल्ला कर अपनी खुशी का इजहार कर ही रहे थे कि गाइड ने सबको बैठ जाने की हिदायत दी। उसने समझाया, ‘‘इतनी चढ़ाई के बाद अचानक नीचे की ओर देखना खतरनाक हो सकता है। सब लोग थोड़ी देर बैठ कर सुस्ता लें और उसके बाद ही खड़े होकर नीचे झांकें।’’
चंद्रशिला पर एक छोटे से मंदिर में गंगा की मूर्ति है। इसमें कोई पुजारी नहीं रहता। पूजा भी नहीं होती। मौसम साफ हो तो चंद्रशिला पर खड़े होकर आप केदारनाथ और चौखंभा के अलावा नंदा देवी, पंचचुली, बंदरपूंछ और नीलकंठ की चोटियों को निहारते हुए बर्फ की ठंडक को अपने अंदर उतरता महसूस कर सकते हैं।
मैंने सोचा था कि वापसी में ढलान पर उतरना आसान होगा मगर यह मेरी भूल थी। नमी के कारण चट्टानों और घास पर फिसलन थी। एक - दो बार मैं फिसल भी गई मगर खुशकिस्मती से चोट नहीं आई। तुंगनाथ तक पहुंचने से पहले ही मैं बुरी तरह थक चुकी थी। वहां पहुंच कर मैं एक ढाबे में सुस्ताने और खाने के लिए बैठ गई। अरहर और चने की मिलीजुली दाल और पहाड़ी चावल के साथ आलू की रसेदार सब्जी का जायका अलौकिक था।
चोपता वापसी का सफर कुछ ज्यादा ही रोमांचक था। तुंगनाथ से कुछ ही आगे चली थी कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और ओले भी पड़ने लगे। थोड़ी ही देर में समूची धरती सफेद ओलों से पट चुकी थी। भाग कर एक ढाबे तक पहुंचने से पहले ही मैं पूरी तरह सराबोर हो गई। बारिश रुकने का घंटा भर इंतजार करती रही। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो मैंने भीगते हुए ही चलने का फैसला किया। इस इलाके में बारिश लगभग रोज ही होती है। इसलिए हर ढाबे में 20 रुपए में कामचलाऊ रेनकोट मिल जाता है। मैं तो पहले ही पूरी तरह तरबतर थी मगर कैमरे को बचाने के लिए एक रेनकोट खरीदा और चल पड़ी। ठंड के कारण ओलों के पिघलने की रफ्तार बहुत धीमी थी। उन पर पड़ते ही पैर फिसल जाते थे। धीरे - धीरे चलते हुए किसी तरह गेस्ट हाउस तक पहुंचने के बाद मैंने राहत की सांस ली।
शाम को मैं मंगल सिंह की दुकान पर चाय पी रही थी। उन्नासी साल के मंगल सिंह को देखने और सुनने में दिक्कत होती है। उम्र काफी हो जाने की वजह से बातों में तरतीब भी नहीं है। लेकिन अगर आपके पास सुनने का धैर्य हो तो उनकी यादों की झोली में पूरा एक जमाना छिपा है। आखिर इस शख्स की वजह से ही दुनिया ने चोपता को जाना और पहचाना है। उमा प्रसाद की नजरों को हिमालय को देखने का नजरिया मंगल सिंह ने ही दिया था। उनकी बातें बहुत समझ में नहीं आने के बावजूद मैं उनसे काफी देर तक बतियाती रही। उनके बारे में अखबारों और पत्रिकाओं में छपे लेखों की कतरनों को देखा। फिर उनके ‘विजिटर्स रजिस्टर’ में अपने चंद खयालात दर्ज किए और उनसे विदा लेकर अपने कमरे में लौट आई।
अगले दिन केदारनाथ कस्तूरी मृग अभयारण्य, देवरिया ताल और उखीमठ होते हुए दिल्ली वापसी के सफर में रुद्रप्रयाग तक पहुंचने का विचार था। इसलिए सुबह जल्दी उठ कर सड़क के किनारे लावारिस सी खड़ी अपनी कार की सफाई में लग गई। गेस्ट हाउस में काम करने वाले लड़के देवेन्द्र ने सामान कार में लादते हुए पूछा, ‘‘दीदी, फिर कब आएंगी?’’
मैं सोचने लगी, ‘शायद अगले ही साल या फिर हो सकता है कभी नहीं। इतनी बड़ी दुनिया में देखने और समझने को इतना कुछ है कि दोहराव की गुंजाइश ही नहीं रहती। लेकिन चोपता की खूबसूरती और यहां के लोगों की सादगी और मोहब्बत मेरे दिल में हमेशा बनी रहेगी।’