एक शहंशाह की उजड़ी यादें
पार्थिव कुमार
दिल्ली के हाशिए पर खड़ी जार्ज पंचम की 60 फुट की कद्दावर मूर्ति उदासी और बेबसी की जीती - जागती तस्वीर है। तकरीबन 97 साल पहले इसी जगह ब्रिटेन के इस शहंशाह को हिंदुस्तान का ताज पहनाया गया था। उस दिन इस मैदान में एक लाख लोग जमा थे। लेकिन अब गाहेबेगाहे ही कोई इस ओर आता है। शहंशाह के दरबारियों में से भी ज्यादातर ने उसका साथ छोड़ दिया है।
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान दिल्ली में हुए तीन दरबारों का गवाह है शहर के उत्तरी छोर पर ढाका गांव के नजदीक बना यह राज्याभिषेक स्मारक। इनमें से पहला दरबार लार्ड लिटन ने 1877 में मलिका विक्टोरिया की ताजपोशी के मौके पर लगाया था। दूसरा दरबार 1903 में लार्ड कर्जन ने एडवर्ड सप्तम के शहंशाह बनने पर किया। लेकिन इन दोनों से ज्यादा अहम था 1911 का जार्ज पंचम का दरबार जिसने दिल्ली की तस्वीर और तकदीर दोनों ही बदल दी।
जार्ज पंचम ने हिंदुस्तान का ताज पहनने के बाद देश में अंग्रेजी हुकूमत की राजधानी कलकत्ता से हटा कर दिल्ली लाने का ऐलान किया। इसके साथ ही 250 साल से अधिक उम्र का शाहजहानाबाद शाम के धुंधलके में खो गया और नए दिन की शुरुआत के साथ ही नई दिल्ली ने अंगड़ाई ली। यह एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर के तसव्वुर की दिल्ली थी जो 1930 में बन कर तैयार हुई।
1857 में गदर की नाकामी के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली को पूरी तरह बरबाद कर दिया। लगभग 30 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जो इस कत्लेआम से बचे रहे वे शहर छोड़ कर चले गए। चांदनी चैक और उसके आसपास अंग्रेज सिपाहियों और एजेंटों की लूट महीनों जारी रही। इलाके में कुछेक इमारतों को छोड़ बाकी सब को जमींदोज कर दिया गया। लाल किला, जामा मस्जिद और फतेहपुरी मस्जिद के अंदर अंग्रेज सिपाही तैनात कर दिए गए।
शहर के बाशिंदों को उनकी जायदाद 1859 के आखिर में लौटाई गई। दिल्ली फिर से आबाद होने लगी। लेकिन दो साल पहले गलियों में बहे खून और चैराहों पर लटकाई गई लाशों की बदबू उसके जेहन में बसी रही। जलाए गए मकानों पर से कालिख अभी उतरी नहीं थी। अगले 54 बरसों तक शाहजहां के शहर में जिंदगी चलती तो रही मगर सहमी - सहमी सी।
एडवर्ड सप्तम की मई 1910 में हुई मौत के बाद जार्ज पंचम ब्रिटेन का शहंशाह बना। उसका राज्याभिषेक 22 जून 1911 को किया गया। उसी साल दिसंबर में उसने दिल्ली का दौरा किया। वह हिंदुस्तान आने वाला ब्रिटेन का पहला शहंशाह था। इस दौरान राजाओं और नवाबों की भीड़ के सामने उसे हिंदुस्तान के सम्राट और उसकी पत्नी मैरी को साम्राज्ञी के तौर पर पेश किया गया।
जार्ज पंचम की ताजपोशी के कई दिन पहले से ही दिल्ली की फिजा बदलने लगी। हवेलियों के मेहमानखाने आबाद हो गए। हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों के अलावा विदेशों से भी लोग आने लगे। जिस इलाके को अब किंग्सवे कैम्प के नाम से जाना जाता है वहां राजाओं और नवाबों के लिए तंबू लगाए गए। सड़कों को धोकर उन पर तेल छिड़का गया ताकि धूल नहीं उड़े। बग्घियों और मोटरकारों की आमदरफ्त बढ़ गई। शहंशाह की सवारी को जिन रास्तों से होकर गुजरना था उनके दोनों किनारों पर तमाशबीनों के लिए लकड़ी के पटरों से स्टैंड बनाए गए।
कामगार, बढ़ई, भिश्ती, हलवाई, नाई और दुकानदार अपनी आमदनी बढ़ जाने से खुश थे। जिन लोगों ने 1857 की तबाही को देखा था उनके दिलों में अंग्रेजों के लिए नफरत और चेहरे पर गम की छाया और गहरी हो गई थी। शहंशाह के दिल्ली पहुंचने से दो दिन पहले आगजनी की कुछ वारदात भी हुई। लेकिन जार्ज पंचम की ताजपोशी को लेकर हर किसी के मन में कौतूहल था।
7 जनवरी को रात का आखिरी पहर गुजरने से पहले ही समूची दिल्ली आंखें मलती हुई सड़कों के किनारे जमा थी। कुहासे की चादर ओढ़े मरियल से सूरज का जैसे ही दीदार हुआ एक के बाद एक गोले दागती तोपों ने कोहराम मचा दिया। भीड़ को काबू में रखने के लिए हजारों की तादाद में तैनात अंग्रेज सिपाही मुस्तैद हो गए। शहंशाह का काफिला चींटियों की एक लंबी कतार की शक्ल में लाल किले से निकल पड़ा।
जार्ज पंचम का रंगबिरंगा काफिला लाल किले से जामा मस्जिद, परेड ग्राउंड, चांदनी चैक और फतेहपुरी से होता हुआ सिविल लाइंस पहुंचा। शहंशाह को घुड़सवार सिपाहियों ने चारों तरफ से घेर रखा था। उनके पीछे दरबारियों और अंग्रेज अफसरों की टोली थी। सबसे पीछे थीं उन राजाओं और नवाबों की बग्घियां जिन्होंने अपनी शानोशौकत को बचाए रखने के लिए अंग्रेजों की सरपरस्ती कबूल कर ली थी।
इसके तीन दिन बाद जार्ज पंचम का दरबार लगा। दूर तक फैले इस मैदान में तिल रखने तक की जगह नहीं थी। अंग्रेजों की ताकत की इस नंगी नुमाइश को कामयाब बनाने में उनके हिन्दुस्तानी वफादारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। हर कोई शाही धुन पर थिरकने को तैयार था। शहंशाह के सिर पर हिन्दुस्तान का ताज रखे जाने के बाद काफी देर तक समूचे माहौल में तालियां गूंजती रहीं। सहमे हुए परिंदों ने पंख फड़फड़ाए और अपनी चीखों से आसमान को सिर पर उठा लिया।
लेकिन आज शहंशाह की मिजाजपुर्सी करने वाला कोई नहीं है। वह बबूल के जंगल और दलदल के एक किनारे पर चुपचाप खड़ा है। उसके चारों तरफ झाड़ियां उग आई हैं। संगमरमर का उसका बदन धूल और चिड़ियों की बीट से नहाया हुआ है। लंबे शाही चोगे पर दरारों की गहराई गुजरते वक्त के साथ बढ़ती जा रही है। सामने पसरे मैदान में उसकी मौजूदगी से बेपरवाह आसपास के मुहल्लों के बच्चे खेला करते हैं।
मैदान के बीच में बना 170 वर्ग फुट का संगमरमर का चबूतरा जार्ज पंचम के दरबार की यादगार है। उस पर पहुंचने के लिए 31 सीढ़ियां चढ़नी होती है। चबूतरे पर संगमरमर की ही 50 फुट की एक लाट है। लाट के पांच हिस्से हैं जिनमें से सबसे नीचे वाले में उस दिन के वाकये के अंग्रेजी में दर्ज किया गया है।
मैदान के एक हिस्से को घेर कर उसे पार्क की शक्ल दे दिया गया है। पार्क के बीच में लाल बलुआ पत्थर के स्तंभ पर जार्ज पंचम की आसमान को छूती मूर्ति है। संगमरमर की यह मूर्ति पहले राजपथ पर इंडिया गेट के नजदीक हुआ करती थी। लेकिन आजादी के बाद इसे वहां से उखाड़ कर इस बियाबान के सुपुर्द कर दिया गया।
इस मूर्ति के पीछे आधे घेरे में कुल 16 स्तंभ बने हुए हैं। पार्क के बाहर भी मैदान में कुछ स्तंभ हैं। इन सब पर शाही दरबारियों, वायसरायों और अंग्रेज अफसरों के बुत हुआ करते थे। इन्हें दिल्ली के अलग - अलग हिस्सों से लाकर इस पार्क में लगाया गया था। इन मूर्तियों में से आधों का तो अब नामोनिशान तक नहीं है और बाकी भी अपनी आखिरी सांसे गिन रही हैं। उनके लिबासों से लताएं झूलती हैं और सिर और समूचे जिस्म पर इधर - उधर घास उग आई है। शहंशाह के दाहिनी ओर अलग से एक स्तंभ भी है।
जमाना बदलते ही दस्तूर भी बदल जाते हैं। अंग्रेजों ने दिल्ली से मुगलों का नामोनिशान मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो अपनी जान बचा पाए उनमें से कितने ही शहजादे भीख मांगने और शहजादियां जिस्म बेचने तक को मजबूर हो गईं। जब जार्ज पंचम की सवारी निकली उस वक्त आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का अपंग बेटा मिर्जा नसीरुल मुल्क गली चूड़ीवालान में अपने जिस्म को हथेलियों के बल घसीटता चला जा रहा था। उस रोज सबकी नजरों का नूर बने अंग्रेज शहंशाह को क्या पता था कि एक दिन उसका वजूद एक वीरान चहारदीवारी में कैद होकर रह जाएगा।
ज्ञानवर्धक लेख , बधाई
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