Wednesday, December 22, 2010

मोहम्मद रफी के जन्मदिन 24 दिसंबर पर

रफी के गांव में


              पार्थिव कुमार

आम का वह दरख्त अब नहीं रहा जिसके जिस्म पर रफी गांव छोड़ते वक्त अपना नाम खुरच गए थे। नुक्कड़ के उस कच्चे कुएं का नामोनिशान भी मिट चुका है जिसकी मुंडेर पर बैठ कर वह शरारतों की साजिशें रचा करते थे। पिछले तकरीबन 75 बरसों में कोटला सुलतान सिंह में सब कुछ बदल गया है। लेकिन इस छोटे से गांव ने अपने नटखट फिक्को की यादों को बदलाव की तमाम हवाओं से बचा कर ओक में सहेजे रखा है।

पंजाब के अमृतसर जिले में मजीठा से पांच किलोमीटर दूर है कोटला सुलतान सिंह। मशहूर गायक मोहम्मद रफी का जन्म इसी गांव में 24 दिसंबर 1924 को हुआ था। तेरह साल की उम्र में लाहौर में जा बसने से पहले उन्होंने बचपन की अपनी पढ़ाई भी यहीं पूरी की। उस जमाने में अपने तंग कूचों और मिट्टी के चंद घरों के साथ कोटला सुलतान सिंह बाकी दुनिया से कोसों दूर खड़ा हुआ करता था। मगर आज लगभग 200 पक्के मकानों वाले इस गांव में एक हाई स्कूल भी है। तारकोल से ढंकी चौड़ी गलियां हैं और हरेभरे खेतों में बिजली के पंप से पानी की शक्ल में खुशहाली बरसती है।

रफी के बचपन के दोस्त कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘उसे हम फिक्को के नाम से बुलाते थे। फिक्को, सिस्सो यानी बख्शीश सिंह और मैं लुड्डन - हम तीनों जिगरी यार थे। इकट्ठे पढ़ना, एक साथ खेलना और मिल कर मस्ती करना। हमारी शरारतों से समूचा गांव परेशान रहता था। मगर पढ़ने लिखने में भी हमने अपने मास्टर नजीर अहमद को शिकायत का कोई मौका नहीं दिया।’’

85 साल के कुंदन सिंह को देखने, बोलने और सुनने में दिक्कत होती है। चंद कदम चलना भी वाकर के सहारे ही हो पाता है। लेकिन रफी के नाम का जिक्र आते ही उनकी आंखों की पुतलियां चमक उठती हैं। अपनी यादों की पोटली खोलते हुए वह कहते हैं, ‘‘हम तीनों पेड़ से अंबियां तोड़ते और कुएं की मुंडेर पर बैठ कर गप्पें हांकते थे। फिक्को हम तीनों में सबसे शरारती था। ज्यादातर शरारतें उसके ही दिमाग की उपज होती थीं और हम उन्हें अमली जामा पहनाते।’’

रफी को गायकी की तालीम कोटला सुलतान सिंह से जुदा होने के बाद ही मिली। मगर गाने का शौक उन्हें बचपन से ही था। वह अपनी गायों को चराने के लिए उन्हें गांव के बाहर ले जाते और वहां खूब ऊंची आवाज में अपना शौक पूरा करते।

कुंदन सिंह मानते हैं कि गायकी में रफी की कामयाबी एक फकीर की दुआ का नतीजा है। उन्होंने बताया, ‘‘एक दफा गांव में फकीरों की एक टोली आई। वे दरवेश घूम घूम कर गाते चलते थे। फिक्को को उनका गाना अच्छा लगा और उसने उनकी नकल शुरू कर दी। फकीरों में से एक को उसकी आवाज भा गई। उसने फिक्को के सिर पर हाथ रखा और कहा - अल्लाह करे कि तेरी शहद सी मीठी यह आवाज समूची दुनिया में गूंजे।’’

रफी के वालिद हाजी अली मोहम्मद के पास खेती की कोई जमीन नहीं थी। तंगी की वजह से हाजी साहब 1936 में रोजगार की तलाश में लाहौर चले गए। वहां हजामत बनाने का उनका धंधा चल निकला और अगले साल वह अपने समूचे परिवार के साथ लाहौर में ही जा बसे।

कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘हमसे जुदा होते समय फिक्को गमगीन था। हम तीनों दोस्त आम के पेड़ के नीचे मिले। फिक्को ने एक नुकीला पत्थर उठाया और उससे कुरेद कर दरख्त पर अपना नाम और गांव छोड़ने की तारीख लिख दी। उसने कहा - यह अपनी निशानी छोड़ जा रहा हूं मैं। कभी याद आए मेरी तो इसे देख लेना। उस रोज हम तीनों दोस्त एकदूसरे को सीने से भींच कर खूब रोए।’’

रफी कुछ साल तक कोटला सुलतान सिंह के अपने दोस्तों को खत भेजते रहे मगर बाद में यह सिलसिला बंद हो गया। वह संगीत की दुनिया में खो चुके थे और आल इंडिया रेडियो के लाहौर स्टेशन से उनकी आवाज गूंजने लगी थी। उन्होंने लाहौर में रहते ही फिल्मों में गाना शुरू कर दिया था और 1944 में वह बंबई चले गए।

1945 में अपनी ममेरी बहन बशीरा से निकाह करने के बाद रफी कोटला सुलतान सिंह आए। तब तक गायक के तौर पर उनकी शोहरत फैलने लगी थी। कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘मैं और सिस्सो कुछ सकपकाए से थे। अपना यार बड़ा आदमी बन गया है - पता नहीं किस तरह मिले। लेकिन गले लगते ही पल भर में सारी बर्फ पिघल गई और फिर हमने मिल कर वो हुड़दंग मचाई कि कुछ पूछो मत।’’

इसके बाद रफी कभी अपने गांव नहीं आ सके। बंबई में ही अपनी गायकी में मशगूल एक के बाद एक कामयाबी की मंजिलें तय करते गए। गांव की अगली पीढ़ी उनसे मिल तो नहीं पाई मगर उनके गाने गुनगुनाते हुए ही जवान हुई। रफी ने भी कोटला सुलतान सिंह को दिल से जुदा नहीं होने दिया। पंजाब के लेखक हरदीप गिल अपनी किताब के विमोचन के सिलसिले में एक बार रफी से मिलने बंबई गए। जैसे ही उन्होंने बताया कि वह अमृतसर से आए हैं, रफी की बांछें खिल गईं। वह बाकी बातों को दरकिनार कर गिल से अपने गांव और दोस्तों की खोजखबर लेने लगे।

31 जुलाई 1980 को याद कर कुंदन सिंह की आंखें भर आती हैं। कोटला सुलतान सिंह को दुनिया के नक्शे पर एक अलग पहचान दिलाने वाले रफी इस दिन सबको छोड़ गए। उनके इंतकाल की खबर मिलते ही समूचे गांव में सन्नाटा छा गया और गलियों में हफ्तों उदासी गश्त करती रही।

दो साल पहले सिस्सो के भी गुजर जाने के बाद कुंदन सिंह अकेले रह गए हैं। शाम के धुंधलके में अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांक कर दोस्तों को याद करते हैं। सूरज का संतरी गोला लहलहाते खेतों के पीछे जमीन पर उतरने को है। अभी कुछ ही देर में कोटला सुलतान सिंह रात की काली चादर लपेटे और घुटनों के बीच अपने सिर को छिपाए ऊंघ रहा होगा। सर्द हवा में कुछ सरसराहट सी है जैसे दूर कहीं पेड़ों के पीछे बैठे रफी गा रहे हों -

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे ...

जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे

संग संग तुम भी गुनगुनाओगे ...

(हिन्दी मासिक आउटलुक के दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित)