Monday, October 25, 2010

शख्सियतः के सी पांडेय

पत्थरों में बसती है जिसकी रूह




पार्थिव कुमार

सोलह बरस की नाजुक उमर में कृष्ण चंद्र पांडेय को पत्थरों से प्यार हो गया। समय गुजरने के साथ इस मोहब्बत ने दीवानगी की शक्ल ले ली और तकरीबन 35 साल बाद अब तो उनके खयालों और ख्वाबों में हर पल पत्थर ही बसते हैं। जमाना जिन पत्थरों को ठोकर मार कर आगे निकल जाता है कृष्ण चंद्र उनमें कायनात की खूबसूरती और जिंदगी के रंगों को तलाशते हैं।


कृष्ण चंद्र के पत्थरों के खजाने में हजारों रंगबिरंगे अजूबे शामिल हैं। उनके पास कच्चे सोने, चांदी और लोहे के अलावा डायनासौर के अंडे तथा चांद और मंगल की सतह की चट्टानों के टुकड़े भी हैं। अपने इन बेशकीमती पत्थरों को उन्होंने नासिक, नोएडा और दिल्ली में म्यूजियम खोल कर उनमें सजा रखा है।


पत्थरों को लेकर अपने जुनून के बारे में कृष्ण चंद्र बताते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश में बांदा जिले के अपने गांव में 12 वीं पास करने के बाद मैं इंजीनियरी की पढ़ाई के लिए पुणे पहुंचा। वहां खदानों के चारों तरफ दूर तक पत्थर बिखरे पड़े होते थे। उनके बीच से गुजरते हुए मुझे जो भी पत्थर सुंदर लगता उसे मैं उठा लिया करता। इस तरह पत्थरों में मेरी दिलचस्पी शुरू हुई जो लगातार बढ़ती गई।’’


वह कहते हैं, ‘‘मैंने भूगोल या भूगर्भ विज्ञान में कोई औपचारिक तालीम नहीं ली थी। इसलिए पत्थरों के बारे में जानकारियां जुटाने में बहुत कठिनाई होती थी। छुट्टियों में अक्सर मैं मुंबई चला जाता और वहां पटरी बाजारों में पत्थरों और खनिजों के बारे में किताबें ढूंढा करता।’’


कृष्ण चंद्र कई बरसों तक नौसेना में एयर इंजीनियर के पद पर काम करते रहे। इस दौरान उनके साथियों और सीनियरों ने पत्थर इकट्ठा करने के काम में उनकी खूब हौसला आफजाई की। लेकिन उनकी मां को हमेशा शिकायत रहती, ‘‘दुनिया तो पत्थरों से पैसा कमा रही है। लेकिन समूचे जग से निराला मेरा यह बेटा खेत बेच कर घर में पत्थर भर रहा है।’’




देश की पाषाण विरासत के बारे में जागरूकता फैलाने और इनकी हिफाजत में तन, मन और धन से जुट जाने को बेताब कृष्ण चंद्र ने नौसेना से वक्त से पहले रिटायरमेंट ले लिया। साल 2001 में उन्होंने नासिक में गारगोटी खनिज संग्रहालय खोला जो अपने ढंग का देश का पहला म्यूजियम है। बाद में नोएडा के सेक्टर 18 और दिल्ली के खड़ग सिंह मार्ग में राजीव गांधी हस्तशिल्प भवन के गारगोटी म्यूजियम भी इस कड़ी में जुड़ गए।


कृष्ण चंद्र बताते हैं, ‘‘हमारे म्यूजियमों में ज्यादातर जियोलाइट यानी ज्वालामुखी के लावे से बने हुए पत्थर हैं। इनमें से कई तो साढ़े छह करोड़ साल पुराने हैं। बाकी पत्थरों और खनिजों को भी हमने म्यूजियम में जगह दी है। इन पत्थरों को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और अन्य राज्यों से इकट्ठा किया गया है।’’


वह कहते हैं, ‘‘हमने म्यूजियमों में सिर्फ उन पत्थरों को रखा है जो वाकई खूबसूरत हों और जिनका इस्तेमाल सजावट में किया जा सके। इन पत्थरों को सिर्फ पानी से साफ किया जाता है और इन पर कोई पालिश नहीं की गई। इन पत्थरों के अंदर की नमी को बचाए रखने पर खास ध्यान दिया जाता है ताकि इनकी चमक बरकरार रहे।’’


50 साल के कृष्ण चंद्र को इस बात का अफसोस है कि देश में सजावटी पत्थरों और खनिज की अहमियत को अब तक नहीं समझा गया। वह कहते हैं, ‘‘अमरीका, जापान और यूरोपीय देशों में इन पत्थरों और खनिजों को लेकर काफी जागरूकता है। अगर हमारे देश में भी ऐसी जागरूकता आ जाए तो हम इनकी बेहतर ढंग से हिफाजत और इस्तेमाल कर सकेंगे।’’


कृष्ण चंद्र कहते हैं, ‘‘ देश की खनिज संपदा खास तौर से पिछड़े इलाकों में है। अगर सजावटी पत्थरों के भंडारों का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो इससे इन इलाकों से गरीबी मिटाने में भी काफी हद तक मदद मिल सकती है।’’